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मरणकण्डिका - ४२२
तन्नास्ति भुषने वस्तु, तपसा यन्न लभ्यते।
तपसा दयते कर्म, वह्निनेव तृणोत्करः ।।१५५१।। अर्थ - जैसे अग्नि तृणसमूह को जला देती है, वैसे ही सम्यक् तप कर्मों को जला देता है अतः लोक में कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो सम्यक् प्रकार किये गये तप के द्वारा प्राप्त न होती हो॥१५५१ ॥
चिन्तितं यच्छतो वस्तु, सर्व चिन्तामणेरिव ।
तपसः शक्यते वक्तुं, न माहात्म्यं कथयन ।।१५५२॥ अर्थ - चिन्तामणि रत्न सदृश चिन्तित पदार्थ को देने वाले इस सम्यक् तप का माहात्म्य किसी प्रकार भी कहना शक्य नहीं है॥१५५२ ॥
इति विलोक्य तप: फलमुत्तमं, विमल-वृत्त-निवेशित-मानसः ।
तपसि पूत-मतिर्यतते यतिः, कुतपसः स फले विगतादरः ।।१५५३।।
अर्थ - इस प्रकार जिन यतिजनों का मन निर्दोष चारित्रपालन में स्थिर है, वे तपस्या के उत्कृष्ट फल को देख कर पवित्र बुद्धि युक्त हो सम्यक् तप में ही प्रयत्नशील होते हैं, खोटे तप के फल में आदर नहीं करते ।।१५५३।।
तपः क्रियायामनिशं स्व-विग्रहो, नियोजनीयो यतिना हितैषिणा।
नियोज्यते किं न गृहीत-वेतनो, मनीषिते कर्मणि न स्व-चेटकः॥१५५४॥
अर्थ - आत्मा का हित चाहने वाले यतिजनों द्वारा अपने-अपने शरीर को तपस्या की क्रियाओं में अहर्निश लगाये रखना चाहिए। देखो ! जिसने अपना वेतन/पारिश्रमिक ले लिया है उस भृत्य को क्या इच्छित कार्य में नहीं लगाया जाता ? लगाते ही हैं ।।१५५४॥
गुणैरशेषैः कलिते मनोरमैर्निरस्त-दोषे कथिते तपोधनैः। सदात्र धर्मे शिव-सौख्य-कारणे, प्रमाद-मुक्तः क्रियतां महादरः ॥१५५५ ।।
इति तपसः क्रमः॥ अर्थ - निर्यापकाचार्य महोदय कह रहे हैं कि हे क्षपक ! सम्पूर्ण मनोरम गुणों से संयुक्त एवं दोषों से रहित, तपोधन गणधरादि महात्माओं द्वारा कहा हुआ मोक्ष-सुख के कारण-स्वरूप यह उत्तम तप धर्म है, अत: प्रमाद छोड़कर आप सभी को इस सम्यक् तप में आदर करना चाहिए। अर्थात् इस तप का सम्यक् प्रकार से अनुष्ठान करते रहना चाहिए ॥१५५५ ॥
इस प्रकार तपश्चरण के क्रम का वर्णन पूर्ण हुआ।
उपदेश सुनने वाले क्षपक की स्थिति क्षपकानन राजीवं, ततो भाति विकाशितम्। हत-मोह-तमस्काण्डै:, सूरि-वाक्य-मरीचिभिः॥१५५६ ॥