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मरणकण्डिका- ४२८
गाय सभी प्रकार के इच्छित पदार्थ देती है, वैसे ही तप इच्छित पदार्थ देता है। जैसे तिलक मनुष्य के ललाट की सुन्दरता को वृद्धिंगत करता है वैसे तप भी साधु जीवन की शोभा को वृद्धिंगत करता है तथा जैसे विशिष्ट आभूषण देना मानवृद्धि का द्योतक है वैसे ही सर्व जगत् के द्वारा तप करने वाले मान्य साधुओं का सम्मान . सुशोभित होता है अतः तप को इन उत्तम पदार्थों की उपमा दी गई है।
अज्ञान तिमिरोच्छेदि, जायते दीपकस्तपः ।
पितेव सर्वावस्थासु, करोति नृ-हितं तपः । १५४५ ॥
अर्थ- सम्यक् तप अज्ञानरूपी घोर अन्धकार में विचरण करने वालों के लिए दीपक के सदृश है और सर्व अवस्थाओं में मनुष्य को हित में लगाने के लिए पिता के सदृश है ।। १५४५ ।।
विभीम-विषयाम्भोधेस्तपो निस्तारणे प्लवः ।
तप उत्तारकं ज्ञेयं, विभीम विषयावटात् ॥१५४६ ।।
अर्थ - यह सम्यक् तप अतिभयानक विषयरूपी समुद्र से पार होने के लिए नौका सदृश है और अत्यन्त भयावह पंचेन्द्रियों के विषयरूपी गर्त से निकालने में समर्थ है || १५४६ ||
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इन्द्रियार्थ-महातृष्णाच्छेदकं सलिलं तपः ।
दुर्गती नामराम्यानां निषेधे परिघस्तपः ।। १५४७ ॥
अर्थ- यह सम्यक् तप इन्द्रियों की विषवरूपा महातृष्णा को उपशान्त करने के लिए जल के समान है और अत्यन्त दुखदाईं दुर्गति को रोकने के लिए अगला के सदृश है || १५४७ ॥
मन: कायासुख - व्याघ्र - प्रस्तानां शरणं तपः ।
कल्मषाणामशेषाणां तीर्थं प्रक्षालने तपः ।। १५४८ ।।
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अर्थ - जो प्राणी मानसिक एवं शारीरिक दुख रूपी व्याघ्र से भयभीत हैं, उनके लिए यह सम्यकू तप शरणभूत है, तथा सम्पूर्ण पापरूपी मैल को धो डालने के लिए यही तप तीर्थ है, अर्थात् नदी का स्नानतट है।
तप: संसार- कान्तारे, नष्टानां देशकं यत: ।
दीर्घे भव-पथे जन्तोस्तपः सम्बलकायते ॥। १५४९ ।।
अर्थ संसाररूपी भयावह वन में जो प्राणी दिशा भूल गये हैं, उन्हें उपदेश अर्थात् मार्गदर्शन देने वाला
यह सम्यक् तप ही है। सुदीर्घ भव-रूपी भयानक वन के लम्बे मार्ग को पार करने के लिए यह तप कलेवा के सदृश सहायक है ॥१५४९ ।।
श्रेयसामाकरो ज्ञेयं, भयेभ्यो रक्षकं तपः ।
सोपानमारुरुक्षूणामबाधं सिद्धि - मन्दिरम् ।। १५५० ॥
अर्थ - यह सम्यक् तप अभ्युदय सुखों की खान है, भयभीत प्राणियों का रक्षक है और अविनाशी
सुख स्वरूप मोक्षमन्दिर में जाने के लिए नसैनी अर्थात् सीढ़ियों के सदृश है ।। १५५० ।।