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मरणकण्डिका - ४२७
मृत्यु-जन्म-जरातस्य, तपः सुख-विधायकम्।
महारोगातुरस्येव, भैषज्यं वीर्य-संयुतम् ॥१५३९॥ अर्थ - जैसे महारोग से आकुलित रोगी को यत्न पूर्वक दी गई अत्यन्त शक्तिशाली औषधि सुख कारक होती है, जैसे ही जन्म, जाा एतं पृत्युमणी रोगों से पीड़ित प्राणियों को सम्यक् प्रकार से किया हुआ तप ही औषधि के सदृश सुख देने वाला है।।१५३९ ।।
संसारस्याविषयेन, ग्रीष्मकस्येव भास्वतः ।
तापेन तप्यमानस्य, तपो धारा-गृहायते ।।१५४० ॥ अर्थ - जैसे सूर्य की किरणों से तप्तायमान मनुष्य के शरीर का ताप धारागृह से शान्त हो जाता है, वैसे ही संसाररूपी असहय महादाह से जलते हुए प्राणियों के लिए तप जलगृह के सदृश शान्ति देने वाला है। अर्थात् तप कर्मों का नाश कर शाश्वत सुख देता है ।।१५४०॥
विदधानस्तपो भक्त्या, निरालस्यो विधानतः।
देशान्तरमपि प्राप्तः, स बन्धुरिव गृहयते ।।१५४१॥ अर्थ - जो आलस्य छोड़कर श्रद्धा एवं भक्ति से गद्गद होता हुआ विधिपूर्वक तपश्चरण करता है वह देशान्तर में भी बन्धु जनों के सदृश सभी को प्रिय होता है। अर्थात् यह 'जगत् विश्वसनीयता गुण' तपश्चरण से ही प्राप्त होता है॥१५४१॥
मातेवास्ति सुविश्वास्यः, पूज्यो गुरुरिवाखिलैः ।
महानिधिरिव ग्रायः, सर्वत्रैव तपोधनः ।।१५४२ ।। अर्थ - तपस्वी मुनि सर्वत्र माता सदृश विश्वासपात्र, गुरु सदृश सभी से पूज्य एवं महानिधि के सदृश ग्रहण करने योग्य होता है ।।१५४२।।
लभ्यन्ते नर-देवानां, सर्वाः कल्याण-सम्पदः ।
परमं सिद्धि-सौख्यं च, कुर्वता निर्मलं तपः॥१५४३॥ अर्थ - निर्मल एवं सम्यक् तपश्चरण करने वाले साधु को अर्धचक्री, चक्रवर्ती एवं इन्द्रों की सर्व ही कल्याणप्रद सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं तथा सर्वोत्कृष्ट मोक्षसुख भी प्राप्त होता है ।।१५४३॥
चिन्तामणिस्तपः पुंसो, धेनुः कामदुधा तपः ।
तिलकोऽस्ति तपो भव्यस्तपो मान-विभूषणम् ॥१५४४ ।। अर्थ - सम्यक्तप मनुष्य के लिए चिन्तामणिरत्न है, कामदुधा कामधेनु गाय है, मनुष्य के मस्तक पर शोभित होने वाले तिलक के समान है और मान का विशिष्ट आभूषण है।।१५४४ ।।
प्रश्न - तप को चिन्तामणिरत्नादि की उपमा क्यों दी गई है ? । उत्तर - जैसे चिन्तामणिरत्न चिन्तित वस्तुएँ देता है वैसे तप भी मनोवांछित फल देता है। जैसे कामधेनु
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