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मरणकण्डिका - ४२५
अन्धकार की जननी स्वरूप रात्रि जीती जाती है वैसे ही महाउद्यमशील उदित क्षपक के द्वारा-सामायिक तथा ध्यानादि कार्यों में व्यवधान करने वाली एवं पायकार की जननी सदृश निद्रा जीती जाती है। अर्थात् जो महान् उद्यमशील एवं वैराग्य युक्त साधु हैं वे ही निद्रा को जीत सकते हैं, अन्य नहीं ॥१५२७।।
इस प्रकार निद्राविजय वर्णन पूर्ण हुआ।
अंतरंग-बहिरंग एवं अंतरंग तप का कथन यतस्वाभ्यन्तरे बाह्ये, स्वां शक्तिमनिगूहयन् ।
तपस्यनलसः स त्वं, देह-सौख्य-पराङ्मुखः ॥१५२८ ।। अर्थ - हे क्षपक ! तुम शरीर और सुख से पराङ्मुख हो, अर्थात् शरीर एवं सुखियापने की आसक्ति तथा आलस्य छोड़कर, अपनी शक्ति को न छिपाते हुए अभ्यन्तर और बाह्य तप में उद्यम करो ॥१५२८ ।।
प्रश्न - देह-सुख एवं आलस्य क्यों छुड़ाये जा रहे हैं ?
उत्तर - शरीर एवं सुन की आसक्ति तथा आलस्य ये तीनों तप में विघ्न करने वाले हैं, क्योंकि जो शरीर और सुख में आसक्त है अथवा उनमें जिसका आदर भाव है या जो आलसी या प्रमादी है वह कदापि तप में प्रयत्न नहीं कर सकता, अत: तप के इच्छुक को इन तीनों के छोड़ने की प्रेरणा दी गई है।
आलस्य-सुख-शीलत्वे, शरीर-प्रतिबन्धने । विदधाति तपो भक्त्या, स्व-शक्ति-सदृशं न यः ।।१५२९॥ तस्य शुद्धो न भावोऽस्ति, माया तेन प्रकाशिता।
शरीर-सौख्य-सक्तस्य, धर्म-श्रद्धा न विद्यते ।।१५३० ।। अर्थ - आलस्य से, सुखिया स्वभाव होने से एवं अपने शरीर के प्रति प्रतिबद्ध होने से जो अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक तप नहीं करता उसके भावों की शुद्धि नहीं है। शक्ति के अनुसार तप में प्रवृत्ति न करने वाला मायाचारी है। तथा सुख और शरीर में आसक्ति होने से उसकी धर्म में तीव्र श्रद्धा नहीं है, अर्थात् यथाशक्ति तप न करने वाला धर्माचरण से जी चुराने वाला सिद्ध होता है।।१५२९-१५३०॥
वीर्य निगूयते येन, तेनात्मा वञ्च्यते स्वयम् ।
सुख-शीलतया तेन, कर्मासातं च बध्यते ।।१५३१॥ अर्थ - जो साधु अपनी शक्ति को छिपाता है, अर्थात् शक्ति के अनुसार तप में तत्पर नहीं होता वह अपनी ही आत्मा को ठगता है। तथा सुख में आसक्त रहने से भयंकर दुख देने वाले असाताकर्म को बांधता है ।।१५३१ ।।
आलस्य दोष वीर्यान्तराय-चारित्र-मोहावर्जयतेऽलसः। शरीर-प्रतिबन्धेन, जायते सपरिग्रहः ॥१५३२॥