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मरणकण्डिका - ४२४
अर्थ - महासन्तापकारी अग्नि के द्वारा जाज्वल्यमान भयानक घर में सोना जैसे उचित नहीं है, वैसे ही जन्म, जरा, मरण, आधि, व्याधि, शोक, भय एवं हिंसादि दोषों से भरे हुए इस भयावह संसार में निद्रा लेना किसे अथवा किसके लिए उचित है ? ||१५२२॥
को दोषेष्यप्रशान्तेषु, निरुद्वेगोऽस्ति पण्डितः ।
द्विषत्स्विव समीपेषु, विविधानर्थकारिषु ।।१५२३ ।। अर्थ - नाना प्रकार के अनर्थ करने वाले शत्रुओं के निकट रहने पर जैसे कोई निर्भय होकर नहीं सो सकता, वैसे ही संसार की वृद्धि करने वाले राग-द्वेषादि दोषों को उपशान्त किये बिना कौन ऐसा ज्ञानी है जो निरुद्वेग अर्थात् निर्भय होकर सो सकता है ।।१५२३ ।।
नास्ति निद्रा-तमस्तुल्यं, परं लोके यतस्तमः ।
सर्व-व्यापार-विध्वंसि', जयेद सर्वदा ततः ।।१५२४॥ अर्थ - इस लोक में निद्रा रूपी अंधकार के सदृश और कोई अन्धकार नहीं है, क्योंकि यह निद्रा ध्यानादि सर्व ही शुभ कार्यों को ध्वंस करती है, अतः हे क्षपक ! तुम निद्रा को जीतने का सदैव प्रयत्न करो॥१५२४ |
निद्रा-विमोक्ष-काले त्वं, निद्रां मुञ्चाथषा यते ।
यथा वा क्लान्त-देहस्य, समाधानं तथा कुरु ॥१५२५॥ अर्थ - अथवा यदि निद्रा पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हो तो हे क्षपक ! रात्रि का तृतीय पहर का जो समय आगम में निद्रात्याग का कहा है, उस समय तुम निद्रा को अवश्य त्यागो। अथवा उपवास, विहार या रोगादि के कारण शरीर क्लान्त हो रहा हो तो जिस प्रकार आपके परिणामों में शान्ति एवं समाधान रहे उस प्रकार निद्रा का त्याग करो।।१५२५ ।।
कर्मास्रव-निरोधेऽयमुपायः कथितस्तव।
कल्मषस्य पुराणस्य, तपसा निर्जरा पुनः ।।१५२६॥ __अर्थ - हे क्षपक ! जिसके द्वारा कासव रुक जाता है और तपादि के माध्यम से प्राचीन बंधे कर्मों की निर्जरा हो जाती है ऐसे कषाय-विजय एवं इन्द्रियविजय के साथ तुम्हारे लिए मैंने निद्रा विजय नाम का यह एक अचूक उपाय बताया है ।।१५२६ ।।
उदीयमानेन महोद्यमेन, क्षत्रेण ? निद्रा तमसां सवित्री। प्रशस्त-कर्म-व्यवधान-शक्ता, विजीयते भानुमतेव रात्रि: ।।१५२७ ॥
इति निद्रा-निर्जयः॥ अर्थ - जैसे उदित होते हुए महाप्रचण्ड सूर्य के द्वारा प्रशस्त कार्यों में विघ्न उपस्थित करने वाली एवं
१. निद्रा मूलमनाना, निद्रा श्रेयो विघातिनी। निद्रा प्रमाद-जननी, निद्रा संसार-वर्धिनी॥