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मरणकण्डिका - ४१५
निषेवित: कोप-रिपुर्यतोऽङ्गिना, ददाति दुःखान्युभयत्र जन्मनि । निकर्तनीयः शम-खड्गधारया तपो-वियोथैः स ततोऽन्य-दुर्जयः ।।१५०२ ।।
। इति क्रोधनिर्जयः। अर्थ - यह क्रोध रूपी शत्रु अपने सेवन करने वाले जीवों को इस भव में और परभव में भी दुख देता है अतः तपोधन साधुओं को अपनी समताभाव रूपी तलवार से उसे काट देना चाहिए, क्योंकि यह क्रोध-रूपी शत्रु साधुओं के अतिरिक्त अन्य किसीके भी द्वारा जीता नहीं जा सकता ||१५०२।।
इस प्रकार क्रोध-विजय का कथन पूर्ण हुआ।
मार्दव भाव नीचत्वे मम किं दुःखमुच्चत्वे कोऽत्र विस्मयः ।
नीचत्वोच्चत्वयो स्ति, नित्यत्वं हि कदाचन ॥१५०३ ।। अर्थ - नीवत्व और उच्चत्व ये दोनों धर्म अनित्य हैं, ये शाश्वत नहीं रहते, अतः यदि किसी न मेरा सम्मान नहीं किया, उच्चासन नहीं दिया तो इससे मुझे क्या दुख ? तथा कदाचित् किसी ने उच्च पद पर आरूढ़ भी कर दिया, अपना प्य से कोई इन्च पर प्राण भी हो गया तो इसमें क्या आश्चर्य ? इन्हें तो मैंने अनन्तबार प्राप्त किया है अत: इसमें मुझे कोई हर्ष-विषाद नहीं है॥१५०३ ।।
परेषु विद्यमानेषु, किं दुःखमधिकेषु मे।
योनि-हीनेष्वहङ्कारः, संसारे परिवर्तिनि ॥१५०४।। अर्थ - कुल, रूप, ज्ञान एवं तपादि में मुझ से अधिक श्रेष्ठ व्यक्ति इस जगत् में विद्यमान हैं अत: जो कुछ ज्ञानादि मुझे प्राप्त हुआ है उसमें आंभमान कैसा ? इस परिवर्तनशील संसार में मैं अनेक बार नीच-योनियों में जन्म ले चुका हूँ अत: वर्तमान के इस उच्च कुलादि में भी क्या अहंकार ? इस प्रकार के चिन्तन द्वारा अभिमान पर विजय प्राप्त करनी चाहिए ॥१५०४ ।।
न मानी कुरुते दोषमपमानकर न यः।
न कुर्वाण: पुनर्मानमपमान-विवर्धकम् ॥१५०५ ।। अर्थ - जो पुरुष अपमान के कारणभूत कारणों का त्याग करता है और सदा दोष रहित-प्रवृत्ति करता है वही यथार्थतः मानी है। गुणरहित होते हुए भी अभिमान करने वाला मानी नहीं होता ||१५०५॥
द्वितय-लोक-भयङ्करमुत्तमो, विविध-दुःख-शिलातत-दुर्गमम्। प्रबल-मार्दव-वन-विघाततो, नयति मान-नगं शत-खण्डनम् ॥१५०६ ।।
इति मान-निर्जयः। अर्थ - जो इस लोक एवं पर-लोक में भयंकर है तथा घोर दुखरूपी विषम पाषाण की शिलाओं के समूह से दुर्गम है, ऐसे मानरूपी पर्वत के उत्तम साधुजन प्रबल मार्दव भावरूपी वज्र के आघात से सहस्रों खण्ड कर डालते हैं अर्थात् साधुजनों को मान कषाय रूपी पर्वत को मार्दव भाव द्वारा नष्ट कर देना चाहिए ।।१५०६ ।।
इस प्रकार मानकषाय विजय का कथन पूर्ण हुआ।