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मरणकण्डिका - ४१२
जायन्ते सकला दोषा, लोभिनो ग्रन्थ-तापिनः ।
लोभी हिंसानृत-स्तेय-मैथुनेषु प्रवर्तते ॥१४६६ ॥ अर्थ - परिग्रहरूपी सन्ताप से पीड़ित लोभी मनुष्य में सर्व दोष होते हैं क्योंकि लोभी व्यक्ति ही हिंसा, झूठ, चोरी एवं मैथुनादि पापों में प्रवृत्त होता है ।।१४६६ ।।।
रामस्य जामदग्न्यस्य, गृहीत्वा लुब्ध-मानसः ।
कार्तवीर्यो नृपः प्राप्तः, सकुल: सबस्न: क्षयम् ॥१४६७ ।। अर्थ - परशुराम अथवा श्वेतराम एवं महेन्द्रराम जमदग्नि नामक तापसी के पुत्र थे। तापसी के पास कामधेनु गाय थी, लुब्धमन वाले कार्तवीर्य नामक राजा ने हठात् उस कामधेनु का हरण कर लिया उससे वह राजा अपने पूरे वंश एवं सेना के साथ नष्ट हो गया था ॥१४६७ ।।
* कार्तवीर्य की कथा * एक वनमें जटाधारी तापसियोंका आश्रम था। उसमें जमदग्नि नामका एक मिथ्या तापसी रेणुका स्त्री एवं श्वेतराम और महेन्द्रराम नामके दो पुत्रोंके साथ रहता था। एक दिन उस वनमें हाथी पकड़नेको कार्तवीर्य नामका राजा आया। वह थककर विश्राम हेतु जमदग्निकी कुटीके पास बैठा था। रेणुका ने उसको मिष्टान्न द्वारा तृप्त किया। आश्चर्ययुक्त हो राजाने प्रश्न किया कि इतना श्रेष्ठ भोजन तुम लोगोंके पास इस निर्जन वनमें कहाँसे
आया ? रेणुका ने कहा कि हमारे पास कामधेनु है। उसके द्वारा सब कुछ मिलता है, राजाको कामधेनुका लोभ सताने लगा। उसने उसकी याचना की किन्तु जमदग्नि ने मना किया तब उस लोभी अन्यायी राजाने हठात् कामधेनुका हरण कर लिया और जमदग्निको मारकर अपने नगरमें लौट आया। इधर श्वेतराम महेन्द्रराम वनसे ईंधन लेकर कुटीमें पहुँचे और पिताको मरा देखकर बहुत दुःखी होगये। दोनों पुत्र अत्यंत पराक्रमी थे। उन्हें देवोपनीत शस्त्र परशु भी प्राप्त था। उन्होंने कार्तवीर्यको सेना सहित नष्ट कर दिया, सर्व वंश का सर्वथा नाश कर डाला और दोनों भाई उस राज्यके स्वामी बन गये। इसप्रकार लोभ के कारण कार्तवीर्य नरेश मारा गया और मरकर नरकमें चला गया।
लोभेन लोभः परिवर्धमानो, दिवा-निशं वह्निरिवेन्धनेन । निषेव्यमाणो मलिनत्वकारी, न कस्य तापं कुरुते महान्तम् ॥१४६८ ॥
इति लोभः।
इति कषाय-विशेष-दोषाः । अर्थ - जैसे ईंधन से अग्नि वृद्धिंगत होती है, वैसे ही लोभ से लोभ अहर्निश बढ़ता जाता है। लोभ का सेवन करने से आत्मा में मलिनता आती है। इस प्रकार यह लोभ किसको महा सन्तापित नहीं करता ? अपितु सभी को सन्तापित करता है ||१४६८॥
इस प्रकार लोभ दोष का कथन पूर्ण हुआ। इस प्रकार चारों कषायों के विशेष दोषों का कथन पूर्ण हुआ॥