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मरणकण्डिका - ४११
बालकों, स्त्रियों आदिने उससे घड़े, दीये, सकोरे आदि खरीद लिये और कुम्हारको भोला जानकर किसीने उसको बर्तनोंका मूल्य नहीं दिया। उसको कहा कि कल देवेंगे। बालक उसके साथ हँसी-मजाक करने लगे। संध्या हो गयी। कुम्हारने दुःखित मनसे रात पूर्ण की। रातमें किसी ने उसके बैलको भी चुरा लिया। प्रात: जब किसीने बर्तनोंके रुपये नहीं दिये तब कुम्हार अत्यंत कुपित हो गया। उसने घर-घर जाकर पैसे मांगे किन्तु किसीने कुछ नहीं दिया। कुम्हारने उस गाँवमें आग लगादी । सात वर्ष तक धान्योंसे भरे उस ग्राम को वह जलाता रहा। इससे उसने महान् पाप का संचय किया। इसप्रकार क्रोधके वशमें हुए कुम्हार के उभय लोक नष्ट होगये।
धर्म-पादप-निकर्तन-शस्त्री, जन्म-सागर-निपातन-की। दुःख-शोक भय-वैर-सहाया, निन्दितं किमु करोति न माया ।।१४६२ ॥
इति मायादोषः। अर्थ - यह माया कषाय धर्मरूप वृक्ष को काटने के लिए करोंत के समान है एवं जन्मरूप सागर में गिराने वाली है। दुख, भय, शोक एवं वैर स्वरूप अवगुण इस माया के सहायक हैं। ऐसा कौन सा निन्द्य कर्म है जिसको माया कषाय नहीं करती है ? अपितु माया सर्व ही निन्द्यकार्य करती है ।।१४६२ ।।
इस प्रकार मायादोष का कथन समाप्त हुआ।
लोभ कषाय के दोष लोभतो लभते दोष, पातकं कुरूते परम् ।
जानीते परमात्मानं, नीचमुच्चं न नष्ट-धीः ।।१४६३ ।। अर्थ - यह मानव लोभ कषाय के दशवर्ती होकर अत्यन्त अशुभ पाप करता हुआ अनेक दोषों को प्राप्त होता है। वह नष्टबुद्धि अपने आप को श्रेष्ठ और पर को नीच मानता है, वह पर को कभी श्रेष्ठ मानता ही नहीं है।।१४६३ ॥
लोभस्तुणेऽपि पापार्थमितरत्र किमुच्यते।
मुकुटादि-धरस्यापि, निर्लोभस्य न पातकम् ।।१४६४॥ अर्थ - जब एक नि:सार तृण में भी उत्पन्न हुआ लोभ पापबंध का कारण है तब फिर अन्य सारभूत विशिष्ट धन-धान्यादि में उत्पन्न लोभ का तो कहना ही क्या है ? जो मनुष्य लोभाधीन नहीं होते उनके शरीर पर मुकुट, हार एवं कुण्डलादि परिग्रह होने पर भी वे तज्जन्य कर्मबन्ध नहीं करते । अर्थात् मूल्यवान पदार्थ भी लोभ के अभाव में बन्ध का कारण नहीं होता ।।१४६४ ।।
सुखं त्रैलोक्य-लाभेऽपि, नासन्तुष्टस्य जायते ।
सन्तुष्टो लभते सौख्य, दरिद्रोऽपि निरन्तरम् ।।१४६५॥ अर्थ - ('समाधानवृत्ति सन्तोष के आधीन रहती है द्रव्य के आधीन नहीं इसी कारण) असन्तुष्ट व्यक्ति को तीनों लोकों की सम्पत्ति प्राप्त हो जाने पर भी सुख नहीं होता और ममत्वभाव के अभाव में सन्तुष्ट व्यक्ति दरिद्री होते हुए भी निरन्तर सुखी रहता है॥१४६५ ।।