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मरणकण्डिका - ४१५
कषायाक्ष-द्विषो बद्धा, भावनाभिस्तपस्विना।
शृङ्खलाभिरिव स्तेना, न दोषं जातु कुर्वते ॥१४८१॥ अर्थ - जैसे शृंखला से बंधे हुए चोर चोरी आदि दोष नहीं कर पाते वैसे ही तपस्वीजनों द्वारा कषायरूपी शत्रु अहिंसादि महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं की अथवा शुभध्यान रूपी भावों की सांकल से बाँध दिये जाने पर संयमरूपी धन का अपहरण आदि नहीं कर पाते॥१४८१ ।।
कषायाक्ष-महाव्याघ्राः, संयम-प्राण-भक्षिणः।
अधिरोप्य नियम्यन्ते, वैराग्य-दृढ-पञ्जरे ॥१४८२ ।। अर्थ - कषाय और इन्द्रियरूपी महाव्याघ्र साधुके संयमरूपी प्राणों का भक्षण करने वाले होते हैं। इन्हें वैराग्यरूपी दृढ़ पिंजरे में बन्द करके ही रोका जा सकता है।।१४८२ ।।
नीता व्रत-महावारिं, कषायाक्ष-मतङ्गजाः ।
वशा सन्त्यवशाः सन्तो, बद्धा विनय-रश्मिभिः ।।१४८३ ।। अर्थ - कषाय एवं इन्द्रिय रूपी हाथी स्वच्छन्द होने से अवश हैं अर्थात् किसी के वशीभूत नहीं होते, किन्तु यदि इन्हें व्रतरूपी बाड़े में ले जाकर विनयरूपी रस्सी से बाँध दिया जाता है तो वे वश में हो जाते हैं॥१४८३ ||
कषायाक्ष-गजा: शील-परिखा-लङ्घनैषिणः ।
धर्तव्याः सहसा वीरैधृति-कर्ण-प्रतोदनैः॥१४८४॥ अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियरूपी हाथी शील रूपी खाई को उल्लंघन करना चाहते हैं, अतः वीर पुरुषों को अकस्मात् जाकर उन्हें धैर्यरूपी कर्णप्रहारों से पकड़ लेना चाहिए॥१४८४ ।।
कषायाक्ष-द्विपा भत्ता, दुःशील-वन-कांक्षिणः।
ज्ञानाङ्कुशैर्विधीयन्ते, तरसा वशवर्तिनः ।।१४८५॥ अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियरूपी मदोन्मत्त हाथी सदा दुःशीलरूपी वन में प्रवेश करना चाहते हैं, अत: उन्हें ज्ञानरूपी अंकुश द्वारा वश में रखना चाहिए ||१४८५॥
ध्यान-योधा-वशीभूता, राग-द्वेष-मदाकुलाः।
ज्ञानाकुशं विना यान्ति, तदा विषय-काननम् ।।१४८६ ।। अर्थ - जो ध्यानरूपी योधाओं द्वारा वश किये जा सकते हैं ऐसे रागद्वेष रूपी मद से आकुलित हाथी ज्ञानरूपी अंकुश के बिना नियमतः विषय रूपी वन में चले जाते हैं ।।१४८६ ।।
तदा शम-बने रम्ये, कषायाक्ष-महागजाः। रम्यमाणा न कुर्वन्ति, दोषं साधोर्मनागपि ॥१४८७ ।।
इति सामान्य-कषाय-निर्जयः।