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भरणकण्डिका - ४१६
अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियरूपी महागज जब ज्ञानांकुश द्वारा वश में कर लिये जाते हैं तब वे समताभाव रूपी रमणीक वन में ही रमते रहते हैं, फिर वे साधु के संयम में किंचित् भी दोष उत्पन्न नहीं करते ॥१४८७ ।। इस प्रकार सामान्य से कषायों को जीतने का कथन पूर्ण हुआ।
सामान्यतः इन्द्रियविजय कथन । शब्दे वर्णे रसे गन्धे, स्पर्शे साधुः शुभाशुभे।
राग-द्वेष-परित्यागी, हृषीक-विजयी मतः॥१४८८॥ अर्थ - शुभ एवं अशुभ शब्द, वर्ण, रस, स्पर्श और गंध में राग तथा द्वेष का परित्याग करने वाला साधु इन्द्रियविजयी माना जाता है ।।१४८८ ।।
हृषीक-विजयः सद्भिः, कटुकोऽपि निषेव्यते ।
भेषज्यमिव वांछद्भिर्नित्य-सौख्यं यथाजसा ।।१४८९ ।। अर्थ - यद्यपि पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है फिर भी जैसे जीवन का इच्छुक रोगी पुरुष कड़वी औषधि भी पीता है, वैसे शाश्वत सुख के इच्छुक साधुजनों के द्वारा अत्यन्त कठिन भी इन्द्रियजय का सेवन किया जाना चाहिए ।।१४८९ ।।
इन्द्रियविजय का उपाय पुद्गला ये शुभाः पूर्वमशुभाः सन्ति तेऽधुना।
अशुभाः पूर्वमासन्ये, साम्प्रतं सन्ति ते शुभाः ।।१४९० ।। अर्थ - इन्द्रिय-विषयों में शुभपना एवं अशुभपना सदा स्थिररूप से नहीं रहता । इन्द्रियों के विषयभूत जो पुद्गल पूर्व में शुभ थे वे ही इस समय अशुभ होते और जो पूर्व में अशुभ थे वे शुभ होते देखे जाते हैं। अथवा जो वर्तमान में शुभ या अशुभ हैं वे ही भविष्य में अशुभ एवं शुभ होते देखे जाते हैं अत: इन विषयों में रागद्वेष करना योग्य नहीं है॥१४९० ।।
भुक्तोज्झिताः कृताः सर्वे, पूर्व तेऽनन्तशोऽङ्गिना।
को मे हर्षो विषादो वा, द्रव्ये प्राप्ते शुभाशुभे ।।१४९१ ।। अर्थ - संसारी प्राणियों ने अतीत भवों में स्पर्श-रसादि शुभ-अशुभ विषय अनन्तबार भोगे हैं और अनन्तबार त्यागे हैं। अब मुझ ज्ञानी साधु को शुभ अथवा अशुभ पदार्थों की प्राप्ति में क्या तो हर्ष और क्या विषाद ? साधुजनों को इस प्रकार विचार करना चाहिए ।।१४९१॥
रूपे शुभाशुभे न स्त:, साधनं सुख-दुःखयो।
सङ्कल्प-बशतः सर्वं, कारणं जायते तयोः॥१४९२ ।। अर्थ - कोई अच्छा या बुरा रस-गन्धादिरूप पुद्गल सुख या दुख का साधन नहीं है। सुख या दुख के जितने भी कारण बनते हैं वे सब संकल्पवश अर्थात् मन की कल्पनावश ही उत्पन्न होते हैं॥१४९२॥