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मरणकण्डका ४१०
अरतिर्जायते मायी, बन्धूनामपि दारुणः । महान्तमश्नुते दोषमपराध-निराकृतः ।। १४५६ ।।
अर्थ - मायावी मनुष्य सभी को अप्रिय लगता है, वह बन्धु-बांधवों को भी दारुण दुखदायी प्रतीत होता है एवं वह अपराध रहित होने पर भी महादोषी माना जाता है। अथवा मायाचारी के कारण महादोष को प्राप्त हो जाता है ।। १४५६ ॥
एका सत्य - सहस्राणि, माया नाशयते कृता ।
मुहूर्तेन तुषाणीव, नित्योद्वेग - विधायिनी ।। १४५७ ।।
अर्थ - एक बार भी की जाने वाली मायाचारी हजार सत्यों का विनाश कर देती है। यदि वह मायाचारी बार-बार की जाय तो शरीर में प्रविष्ट कांटे के सदृश वह नित्य ही सन्ताप देती है ॥ १४५७ ॥
मित्र - भेदे कृते सद्य:,
कार्यं नश्यति मायया ।
विष मिश्रमिव क्षीरं, समायं नश्यति व्रतम् ।। १४५८ ।।
अर्थ - मायाचारी करने से मित्रता नष्ट हो जाती है और उससे इस लोक सम्बन्धी सर्व कार्यों का विनाश हो जाता है, तथा विष मिश्रित दूध के सदृश मुनिधर्म सम्बन्धी सर्व व्रत नष्ट हो जाते हैं ।। १४५८ ॥ स्त्रेण षंढत्व - तैरव - नीचगोत्र- पराभवाः ।
माया- दोषेण लभ्यन्ते, पुंसा जन्मनि जन्मनि ॥ १४५९ ।।
अर्थ - मायाचारी के दोष से जीव को भव भव में स्त्रीपना, नपुंसकपना, तिर्यचपना, नीचगोत्र एवं पराभव प्राप्त होते रहते हैं ।। १४५९ ।।
यः क्रोध-मान- लोभानामाविर्भावोस्ति मायिनः । सम्पद्यन्तेऽखिला दोषास्ततस्तेषामसंयमम् ॥ १४६० ॥
अर्थ - जहाँ मायाचारी है वहाँ नियमतः क्रोध, मान एवं लोभ की उत्पत्ति होती ही है, उस कारण से अर्थात् क्रोधादि उत्पन्न हो जाने से उनमें अन्य सब दोष उत्पन्न हो जाते हैं, पश्चात् वह साधु असंयम को प्राप्त हो जाता है || १४६० ।।
सप्त वर्षाणि निःशेषं, कुम्भकारेण कोपिना ।
भस्मितं भरत - ग्रामशस्यं प्राप्तेन वञ्चनाम् ।। १४६१ ।।
अर्थ - रुष्ट हुआ कुम्भकार मायाचार से भरत नामक ग्राम का धान्य पूर्णरूप से सात वर्ष तक जलाता
रहा ।। १४६१ ।।
* मायावी कुम्हारकी कथा *
अंगक नामक देश के बृहद् ग्राम में एक कुम्हार रहता था। एक दिन मिट्टीके बहुत से बर्तनों को बैल पर लादकर वह कुम्हार दूसरे ग्राम में बेचने के लिये गाँवके बाहर बैलको खड़ाकरके ठहर गया। ग्रामीण लोगों,