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मरणकण्डिका -४०९
अर्थ - जैसे बहुत ऊँचे और सत्त्वशाली अर्थात् मजबूत भी पर्वतराज दृढ़ वज्र द्वारा चूर-चूर हो जाते हैं, वैसे ही सगर चक्रवर्ती के पुत्र संख्या में साठ हजार एवं महाबलशाली होते हुए भी मानकषाय रूपी वज्र से मृत्यु को प्राप्त हो गये थे||१४५३ ।।
* सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों की कथा * इस अवसर्पिणी कालके बारह चक्रवर्तियों में से सगर दूसरे चक्री हुए। उनके साठ हजार पुत्र थे। वे सभी बल-वीर्य-पराक्रमके धारक थे, उन सबने मिलकर एक दिन पितासे कहा कि हम सबको कोई राज्य आदि संबंधी कार्य बताइये। पिताने कहा-पुत्रो ! यहाँ कार्य करनेकी क्या आवश्यकता ! सुखपूर्वक रहो। किन्तु पुत्रों का अधिक आग्रह होनेसे चक्रीने कहा-कैलाश पर्वतके चारों ओर खाई खोदकर उसमें गंगाजल भर दो। सब पुत्र प्रसन्न हुए। उन्हें अपने बल पराक्रम का बड़ा ही अभिमान था । दण्डरत्न को लेकर वे खाई खोदने कैलाश पर्वतकी ओर चल पड़े।
सगर चक्रवर्तीका पूर्व जन्मका एक मित्र देव हुआ था। वह सगरको जिनदीक्षा दिलाना चाहता था इस विषयमें उसने पहले प्रयत्न भी किये थे किन्तु वे प्रयत्न सफल नहीं हुए थे। अतः दण्डरत्नसे धरणीको खोदते हुए चक्रीके उन पुत्रोंको देखकर चक्रीको वैराग्य उत्पन्न कराने हेतु उस देवने अपनी मायासे सब पुत्रोंको बेहोश कर दिया (मार दिया)। जब यह वार्ता मंत्री आदिको विदित हुई तब वे अत्यंत विचारमें पड़ गये कि यह हाल चक्रीको कैसे सुनाया जाय। फिर भी किसी बहानेसे चक्री तक यह वार्ता पहुँचाई। प्रथम सगर ने बहुत शोक किया किन्तु फिर वैराग्य रूप अमृत जलसे शोकाग्नि को शांत कर उसने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। अब उस मित्रवर देवका मनोरथ पूर्ण हुआ। उसने सगर मुनिराजकी तीन प्रदक्षिणा दी, नमस्कार किया और सर्व सत्य वृत्तांत कह दिया। सगर अब संपूर्ण मोह मायासे मुक्त हो चुके थे। उन्हें कुछ संताप नहीं हुआ। वैराग्य तथा ज्ञान शक्तिसे उन्होंने अपना कल्याण कर लिया। इसप्रकार बलके अभिमानके कारण चक्रीके सब पुत्र नष्ट होगये थे।
इस प्रकार मान के दोषों का कथन पूर्ण हुआ।
माया कषाय के दोष विदधानोऽपि चारित्रं, माया-शल्येन शल्यित:।
न धृतिं लभते कुत्र, शल्येनेव धनर्द्धिकः ॥१४५४ ।। अर्थ - जैसे विपुल धन का स्वामी होने पर भी यदि शरीर में चुभे हुए काँटे से पीड़ित है तो वह कहीं पर भी स्थिरता एवं सुख प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे ही चारित्रादि से समृद्ध होने पर भी यदि साधु के हृदय में माया शल्य घुसा है तो वह शल्य युक्त साधु कहीं पर भी आत्मोत्थ सुख रूप स्थिरता को प्राप्त नहीं हो सकता॥१४५४॥
द्वेषमप्रत्ययं निन्दा, पराभूतिमगौरवम्।
सर्वत्र लभते मायी, लोकन्वय विरोधकः ॥१४५५ ।। अर्थ - माया कषाय से दूषित मनुष्य सर्वत्र द्वेष, अविश्वास, निन्दा, तिरस्कार एवं नीचता का पात्र होता है और उसे दोनों लोकों में सुख प्राप्त नहीं होता। अर्थात् उसके दोनों लोक बिगड़ते हैं ।।१४५५॥