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मरणकण्डिका - ३९९
ज्ञानं परोपकाराय, कषायेन्द्रिय-दूषितम्।
किमूढमुपकाराय, रासभस्य हि चन्दनम् ।।१४११ ।। अर्थ - कषायों और इन्द्रियों से दूषित ज्ञान मात्र परोपकार के लिए होता है। ठीक ही है, गधे के द्वारा ढोया हुआ चन्दन क्या कभी गधे का उपकार करता है? अपितु नहीं करता॥१४११।।
प्रश्न - दूषित ज्ञान पर का उपकारी होता है, यह कैसे कहा?
उत्तर - गधे को चन्दन की सुगन्ध का ज्ञान नहीं होता अतः उसकी पीठ पर लदे हुए चन्दन से गधे को कोई लाभ नहीं होता, उसका लाभ अन्य लोग ही लेते हैं। वैसे ही शास्त्रज्ञान का फल है कषायों का शमन एवं इन्द्रियों के विषयों से विरक्ति । किन्तु जिनका ज्ञान इन्हीं दूषणों से दूषित है, वह ज्ञान परोपकार के लिए ही माना जायेगा। आत्मा, ज्ञान गुण से भिन्न नहीं है अत: उसे स्वयं अपना ही उपकार करना चाहिए, किन्तु दूषित हो जाने से वह स्वोपकारी नहीं बन पाता, उपदेश आदि के निमित्त से दूसरों का उपकार अवश्य कर देता है। स्वोपकार में कषायें एवं भोग-विषय बाधक बन जाते हैं।
कषायाक्ष-गृहीतस्य, न विज्ञान प्रकाशते।
निमीलितेक्षणस्येव, दीप: प्रज्वलितो निशि ।।१४१२ ॥ अर्थ - जैसे जिसने अपने नेत्र बन्द कर रखे हैं उसके लिए रात्रि में तीव्रता से जलता हुआ भी दीपक पदार्थों को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं होता, वैसे ही जिसका ज्ञान इन्द्रियों एवं कषायों से प्रभावित रहता है, उसका ज्ञान वस्तुस्वरूप का प्रकाशक नहीं होता ||१४१२ ।।
बहिर्निभृत-वेषेण, गृहीते विषयान्सदा।
अन्तरामलिन: कङ्को, मीनानिव दुराशयः ।।१४१३ ।। अर्ध - जैसे बाह्य से श्वेत एवं निश्चल खड़ा बगुला अन्तरंग के खोटे परिणामों से युक्त होने के कारण अपनी ही चोंच से मछलियों को खाता है, वैसे ही बाह्य में नग्न दिगम्बर मुद्रा एवं गमनागमनादि क्रियाओं के द्वारा अन्तरंग में स्थित इन्द्रियविषयों एवं कषाय युक्त मलिन परिणामों को मायाचार द्वारा छिपाते हुए सदा विषयों का सेवन करता है ।।१४१३॥
घोटकोच्चार-तुल्यस्य, किमन्तः कुथितात्मनः ।
दुष्टस्य बक-चेष्टस्य, करिष्यति बहिः क्रिया ॥१४१४ ॥ अर्थ - जैसे घोड़े की लीद ऊपर से चिकनी किन्तु भीतर खुरदरी एवं दुर्गन्धित होती है अत: उससे क्या लाभ? वैसे ही जो साधु दुष्ट-स्वभावी बगुले के सदृश चेष्टा करता है उसकी प्रतिक्रमणादि बाह्य क्रियाएँ एवं अनशनादि बाह्य तपोवृत्तियाँ (अभ्यन्तर तपोवृत्ति नष्ट कर देने वाले) उस कुथित आत्मा को क्या फल प्रदान करेंगी ? कुछ भी नहीं ॥१४१४ ।।
मता बहिः क्रिया-शुद्धिरन्तर्मल-विशुद्धये। बहिर्मल-क्षयेनैव, तन्दुलोऽन्तर्विशोध्यते ।।१४१५॥
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