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मरणकण्डिका - ४०३
मर्त्य मांस- रसासक्तः, काम्पिल्य- नगराधिपः । राज्य-भ्रष्टो मृतः प्राप्तो, भीमः श्वभ्रमुरुव्यथाम् ।। १४२६ ।।
अर्थ- काम्पिल्य नगर का राजा भीम मनुष्य के मांस रस का प्रेमी था, जिस कारण राज्य से भ्रष्ट हुआ और मरकर नरक की महावेदना को प्राप्त हुआ था ।। १४२६ ।।
* भीम राजाकी कथा
कांपिल्य नगरका शासक राजा भीम था। वह दुर्बुद्धि मांसभक्षी होगया। नंदीश्वर पर्व में उसे मांस का भोजन नहीं मिला तो उसने रसोइये को कहा कि कहीं से मांस लाओ। रसोइया इधर-उधर खोजकर जब मांस को नहीं प्राप्त कर सका तो श्मशानसे मरे बालक को लाकर उसका मांस राजा को खिलाया। राजा तबसे नरमांसका लोलुपी हो गया। रसोइया उसके लिये गली-गलीमें घूमकर छोटे-छोटे बच्चों को कुछ मिठाई देकर इकट्टा करता और छलसे एक बालक को पकड़कर मार देता था और उसका मांस राजा को खिलाता। नगर मैं चंद दिनों बाद इस कुकृत्य का भंडाफोड़ हुआ और नागरिकों ने राजा तथा रसोइये को देश से निकाल दिया। दोनों पापी जंगल में घूमने लगे। राजा ने भूख से पीड़ित हो रसोइये को मारकर खा लिया। अंत में वह पापी नरभक्षक वासुदेव द्वारा मारा गया और अपने पाप का फल भोगने के लिये नरक में पहुँचा ।
सुवेगस्तस्करो दीनो, रामा - रूप - विषक्त - धीः ।
बाण-विद्धेक्षणो मृत्वा प्रपेदे नारकी पुरीम् ।। १४२७ ।।
अर्थ - सुवेग नामक चोर युवती स्त्रियों के रूप को देखने का अनुरागी था, वह बाणों से विद्ध होकर मरा और नरकपुरी को प्राप्त हुआ || १४२७ ॥
* सुवेग चोर की कथा
मद्दिल्ल नामके नगर में एक भर्तृमित्र नामका श्रेष्ठी पुत्र रहता था । उसकी पत्नीका नाम देवदत्ता था। वसंत ऋतुका समय था । सेठ भर्तृमित्र अपने अनेक मित्रोंके साथ वसंतोत्सवके लिये वनमें गया था। वहाँ पर वसंतसेन नाम के मित्र ने बाण द्वारा आम्र मंजरी को तोड़कर अपनी पत्नी को कर्णाभूषण पहनाये। उसे देखकर देवदत्ता ने अपने पति भर्तृमित्र से कहा- हे प्राणनाथ ! आप भी बाण द्वारा मंजरी तोड़कर मुझे दीजिये । भर्तृमित्र को बाणविद्या नहीं आती थी अतः वह उसे मंजरी नहीं दे सका। उसे बहुत लज्जा आयी । भर्तृमित्र ने मन में निश्चय किया कि मुझे बाणविद्या अवश्य सीखनी है। मेघपुर नामके नगरमें धनुर्विद्याका पंडित रहता था, उसके पास जाकर भर्तृमित्रने बहुत से रत्न देकर तथा उसकी सेवा करके बाणविद्या में अत्यंत निपुणता प्राप्त की। पुनश्च उस नगरके राजाकी कन्या मेघमालाको चंद्रक वेध प्रणमें जीतकर उसके साथ विवाह किया। दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। किसी दिन भर्तृमित्रके घरसे समाचार आनेसे उसने राजासे विदा ली। राजवैभवके साथ रथमें सवार हो मेघमाला एवं भर्तृमित्र मद्दिल नगरकी ओर जा रहे थे। रास्ते में वनमें भीलोंकी पल्ली आयी । बनमें आगत पथिकोंको लूटना ही उन भीलोंका काम था। उनका सरदार सुवेग नामका था। सुवेग मेघमालाका मनोहर रूप देखकर मोहित हुआ और उसका अपहरण करनेके लिये युद्ध करने लगा। मेघमाला उसका मन युद्ध से विचलित 'करनेके लिये उसकी तरफ जाने लगी । सुवेग उसके रूपको देखने लगा इतनेंमें भर्तृमित्र ने बाण द्वारा उसके दोनों