________________
मरणकण्डिका - २१४
उत्तर - कवाट बिना खुली वसत्तिका में क्षपक को दीर्घशंका एवं लघुशंका नहीं करा सकते और आती हुई शीतादि की बाधा का भी निवारण नहीं कर सकते। जिस क्षपक के शरीर में मात्र चर्म एवं हड्डी ही अवशेष रही है, ऐसे क्षपक को शीतादि की बाधा से दुस्सह कष्ट का सामना करना पड़ेगा जो असमाधि का भी कारण बन सकता है, अत: वसतिका में किवाड़ आवश्यक हैं।
उद्यागान्दिने हो, गुहा शूल-शेपनि।
आगन्तुक-निवासे वा, स्थिति: कृत्या समाधये ॥६६७॥ अर्थ - हृदयहारी सुन्दर उद्यानगृह, गुफा, शून्यगृह, सेनादि के साथ आये हुए व्यापारियों द्वारा बनाये गये घर या धर्मशाला आदि में समाधि के लिए निवास करना चाहिए।६६७॥
क्षपकाध्युषिते धिष्ण्ये, धर्मश्रवण-मण्डपः। जनानन्दकरः श्रेयः, कर्तव्य: कण्टकादिभिः ।।६६८ ।।
इति शय्या॥ अर्थ - (उक्त प्रकार की वसतिका न मिलने पर) क्षपक के निवास हेतु वसतिका एवं धर्मश्रवण हेतु मण्डप चटाई या बाँस के पत्तों आदि से आच्छादित एवं प्रकाशयुक्त बनवा लेना चाहिए, जो लोगों को आनन्ददायक और श्रेयस्कर हो॥६६८॥ इस प्रकार शय्या अथवा वसतिका नामक अधिकार पूर्ण हुआ ।।२५।।
२६, संस्तर अधिकार संस्तर के प्रकार और क्षपक के मस्तक की दिशा उत्तराशा-शिराः क्षोणी-शिला-काष्ठ-तृणात्मकः ।
संस्तरो विधिना कार्यः, पूर्वाशा-मस्तकोऽथवा ।।६६९।। अर्थ - (पूर्वोक्त गुणयुक्त वसतिका में) विधिपूर्वक पृथ्वीरूप, शिलारूप, काष्ठरूप या तृणरूप संस्तर करना चाहिए । संस्तर की रचना ऐसी हो कि क्षपक का मस्तक उत्तरदिशा में या पूर्व दिशा में हो॥६६९।।
प्रश्न - क्षपक का शिर उत्तर या पूर्व में क्यों होना चाहिए ?
उत्तर - लोक में मांगलिक कार्यों के लिए उत्तर एवं पूर्व दिशा शुभ मानी गई है क्योंकि उत्तर दिशा में विदेह क्षेत्र है, जहाँ तीर्थकर देव शाश्वत विद्यमान रहते हैं, अत: उनके प्रति भक्ति का संचार हृदय में निरन्तर होता रहे। उत्तर में मस्तक रखने का अर्थ है क्षपक का मुख एवं पैर दक्षिण दिशा की ओर होंगे। दक्षिण दिशा में यम नामक कोटपाल का निवास है। लोक में 'यम' को मृत्युरूप में माना जाता है, अतः इससे यह प्रतीत होता है कि जिस यम से प्रत्येक संसारी प्राणी भयभीत रहता है और सदा उससे मुख छिपाता रहता है, उस यम का वरण करने हेतु ही मानों सम्यग्दृष्टि, भेदविज्ञानी और निर्भीक जैन क्षपक उसके अभिमुख हो रहा है। पूर्व दिशा सूर्य के उदय की दिशा है और पश्चिम दिशा सूर्य के अस्त होने की दिशा है। क्षपक का भी इस पर्यायजन्य शरीर अब अस्त होने के अभिमुख है, अतः उसका मुख पश्चिम दिशा की ओर होना श्रेयस्कर है।