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मरणकण्डिका- ३८५
है जिसका अन्त होना दुष्कर है अतः हे क्षपक ! तुम उस भोगवांछा को सर्वथा छोड़ दो और अपनी बुद्धि मोक्षसुख में लगाओ। अर्थात् ऐसा उपाय करो जिससे शाश्वत सुख देने वाला मोक्ष प्राप्त हो ॥ १३४४ ॥
निदान रहित तपश्चरण के गुण
विशोध्य दर्शन- ज्ञान - चारित्र त्रितयं यतिः ।
निर्निदानो विशुद्धात्मा, कर्मणां कुरुते क्षयम् ॥ ९३४५ ।।
अर्थ - निदान न करने वाले मुनिजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को भली प्रकार शुद्ध कर तथा विशुद्धात्मा होकर तप के द्वारा सब कर्मों का क्षय कर देते हैं ।। १३४५ ।।
दोषानिति सुधीर्बुद्ध्वा निदानं विदधाति नो ।
जानानो दारुणं मृत्युं, को हि भक्षयते विषम् ।।१३४६ ।।
अर्थ - बुद्धिमान जन इस प्रकार दोषों को जान कर कभी निदान नहीं करते हैं क्योंकि ऐसा कौन पुरुष है जो दारुण मृत्युदायक विष को जानता हुआ भक्षण करेगा ? ।। १३४६ ।।
लुम्पति पातकलोपि चरित्रं, सिद्धि-सुखं विधुनोति पवित्रम् । देहवतामुरु-दोष - निधानं, किं कुशलो न शृणाति निदानम् ।। १३४७ ।।
अर्थ - यह निदान पापों का नाश करने वाले चारित्र को लूट लेता है तथा पवित्र सिद्धिसुख को नष्ट कर डालता है, ऐसे महान् दोषों के भण्डार स्वरूप निदान बन्ध को क्या बुद्धिमान् कुशल भुनिजन नष्ट नहीं कर देंगे ? अवश्यमेव नष्ट कर देंगे ।। १३४७ ॥
आलोचनाधिकारस्य, मायाशल्यस्य दूषणम् ।
उक्तं मिथ्यात्व - शल्यस्य, मिथ्यात्व - वमन - स्तवे ।। १३४८ ॥
अर्थ - (निर्यापकाचार्य क्षपक को स्मरण दिला रहे हैं कि हे क्षपक !) आलोचनाधिकार में मायाशल्य के दोष कहे जा चुके हैं, 'मिध्यात्व - वमन प्रकरण में मिथ्यात्वशल्य के भी दोष कहे गये हैं अतः इस निदान शल्य के साथ-साथ तुम माया और मिथ्याशल्य का भी त्याग करो ।। १३४८ ॥
माया शल्य का त्याग न करने से संसारभ्रमण करना पड़ता है, उसका दृष्टान्त इस प्रकार है
मायाशयेन ही बोधेः, प्रभ्रष्टा कुथितानना ।
दासी सागरदत्तस्य पुष्पदन्तार्जिका - भवे ।। १३४९ ॥
अर्थ - पुष्पदन्ता नामक आर्थिका मायाशल्य के कारण रत्नत्रय से भ्रष्ट होकर अगले भव में सागरदत्त सेठ के यहाँ दुर्गन्धित मुखवाली दासी हुई थी ।। १३४९ ।।