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मरणकण्डिका- ३८४
अधमर्णी निजे गेहे, रोधमुक्तो सुखं वसेत् । दत्त्वार्थं समये प्राप्ते, यथा भूयो निरुध्यते ॥ १३४१ ।।
इदानीं चरणं कृत्वा, सुखं भुक्त्वाऽवतिष्ठते । त्रिदिवे समये प्राप्ते, तथा याति पुनर्भवम् ॥ १३४२ ॥
अर्थ - जैसे कर्जदार व्यक्ति कुछ धन देकर बन्धनमुक्त हो कुछ समय के लिए अपने घर में सुख पूर्वक रहता है किन्तु जब कर्ज लौटाने का समय आता है तब कर्ज देने वालों के द्वारा पुनः बन्धन में डाल दिया जाता है, वैसे ही निदान करने वाला मुनि चारित्र पालन कर स्वर्गादि में क्लेशरहित सुख भोगता है किन्तु समय आयु पूर्ण होते ही वहाँ से च्युत होकर संसार परिभ्रमण ही करता है ।। १३४१-१३४२ ।
देवश्चक्री सुखं भुक्त्वा, सम्भूतो हि निदानतः । निरन्तरं महादुःखं, प्राप्तश्च प्रतिवासितम् ।। १३४३ ।।
अर्थ - सम्भुत नामक मुनि ने निदानपूर्वक तपश्चरण किया। मर कर देव हुआ, वहाँ से च्युत हो ब्रह्मदत्त नाम का चक्रवर्ती हुआ। पश्चात् मर कर नरक में निरन्तर महादुख को प्राप्त हुआ ॥ १३४३ ॥
* संभूत की कथा *
वाराणसी नगरीमें दो भाई रहते थे। बड़े भाई का नाम चित्त और छोटे भाई का नाम संभूत था । ये दोनों नृत्यकलामें अति निपुण हुए। स्त्रीका वेष लेकर जब वे नृत्य करते तब सब जनता अत्यंत मुग्ध होती, कोई भी नहीं पहिचानता कि ये दोनों पुरुष हैं। नृत्यकला ही इन दोनोंकी आजीविका थी ।
किसी दिन दिगंबर जैन मुनि गुरुदत्तके मुखकमलसे श्रेष्ठ जैनधर्मका उपदेश सुनकर दोनों भाइयोंको वैराग्य हुआ और उन्होंने उन्हीं गुरुदेवके निकट दैगंबरी दीक्षा ग्रहण की। गुरुचरणके समीप समस्त आगमका अभ्यास किया। अब दोनों मुनि सर्वत्र देशोंमें विहार करते हुए तपस्या करने लगे। उनकी उग्र तपस्यासे प्रसन्न हुआ कोई देव चक्रवर्तीका रूप धारण करके मुनियुगलकी सेवा करने लगा। चक्रवर्तीका वैभव देखकर संभूत नामके छोटे मुनिने निदान किया कि मैं अपनी इस श्रेष्ठ तपस्या द्वारा आगामी भवमें चक्रवर्ती बनूँ । यथासमय मरणकर संभूतमुनि प्रथम सौधर्म स्वर्ग में देव बना और वहांसे च्युत होकर भरत क्षेत्रका इस अवसर्पिणी कालका अंतिम बारहवाँ चक्री ब्रह्मदत्त नामका हुआ। निदान द्वारा प्राप्त वैभवमें अत्यंत आसक्ति होनेके कारण ब्रह्मदत्त आयुके अंतमें मरकर नरकमें चला गया।
इस प्रकार संभूत मुनिने निदान द्वारा अपनी सारभूत तपस्याको नष्ट किया और अंतमें कुगतिमें चला गया। अत: कभी भोगादि का अप्रशस्त निदान नहीं करना चाहिये ।
अतर्पकमविश्रामं, भोग- सौख्यं विनश्वरम् ।
दुरन्तं सर्वथा त्यक्त्वा, मुक्ति-सौख्ये मतिं कुरु ।। १३४४ ।।
अर्थ - भोगों से उत्पन्न होनेवाला सुख अतृप्तिकारक है, अनित्य है, विनश्वर है और ऐसा दुख देता