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चल
मरणकण्डिका ३९९
स्वच्छन्द नामक भ्रष्ट मुनि केचित्सिद्धि - पुरासन्नाः, कषायेन्द्रिय- तस्करैः ।
मुक्तमाना निवर्तन्ते, लुप्त चारित्र - सम्पदः ।। १३७२ ॥
अर्थ- कोई मुनि निर्वाणनगर के निकट तक जाकर भी कषाय और इन्द्रिय रूपी चोरों के द्वारा चारित्ररूपी सम्पदा चुरा लेने के कारण संयम का अभिमान त्याग, मिथ्यात्वी होते हुए वापिस लौट आते हैं । १३७२ ।।
ततः शील- दरिद्रास्ते, लभन्ते दुःखमुल्वणम् । बहुभेद - परीवारा, निर्धना इव सर्वदा ।। १३७३ ।।
अर्थ - जैसे बहुत
संसार के महाभयंकर दुख भोगते हैं ।। १३७३ ।।
परिवार वाला दरिद्री मनुष्य तीव्र दुख पाता है, वैसे ही वे शील से दरिद्री भ्रष्ट मुनि
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स सिद्धि-यायिनः साधुर्निर्गतः साधु-मार्गतः ।
स्वच्छन्द - स्वेच्छमुत्सूत्रं, चरित्रं यः प्रकल्पते ॥ ३१३७४ ।।
अर्थ - निर्वाण मार्ग में चलने वाले साधु संघ से निकल कर पूर्वाचार्यों द्वारा नहीं प्रतिपादित आगमविरुद्ध मार्ग की जो अपनी स्वेच्छानुसार कल्पना करते हैं, वे चारित्रभ्रष्ट स्वच्छन्द साधु होते हैं ।। १ ३७४ ॥ यज्जायते यथाछन्दो, नितरामपि कुर्वतः ।
वृत्तं न विद्यते तस्य, सम्यक्त्व - सह चारितः ॥ १३७५ ।।
अर्थ - जो बाह्य में उत्कृष्ट संयमाचरण का दिखावा करते हुए भी मनचाही प्रवृत्तियों में यथाछन्द हो गया है उसके सम्यक्त्व का सहचारी चारित्र नहीं होता ।। १३७५ ||
प्रश्न
यथाछन्द साधु के सम्यक्त्व नहीं होता, यह कैसे जाना ?
उत्तर - पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित आगम पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए यथाशक्ति आचरण स्वयं करना और शिष्य समुदाय से कराना यही सम्यक्त्वी का लक्षण है, किन्तु जो स्वच्छन्द होता है वह तो जो उसकी इच्छा होती है तदनुसार ही आचरण करता/कराता है और उसी का प्रचार-प्रसार करता है, आगम का अनुसरण नहीं करता, अत: सिद्ध हो जाता है कि उसके सम्यक्त्व नहीं होता । सम्यग्दृष्टि के तो आगम ही प्राण होते हैं।
जिनेन्द्र - भाषितं तथ्यं, कषायाक्ष-गुरुकृतः ।
प्रमाणी - कुरुते वाक्यं यथाछन्दो न दुर्मनाः ॥१३७६ ॥
(इति स्वच्छन्दः )
अर्थ - कषाय और इन्द्रियों की प्रबलता के भार से आक्रान्त यथाछन्द भ्रष्ट साधु खोटे मन वाला होता है, अतः वह आगम को प्रमाण नहीं मानता और जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए अर्थ को अपनी इच्छानुसार विपरीत रूप से ग्रहण कर उसे ही प्रमाणभूत मानता है ॥ १३७६ ।।
|| स्वच्छन्द नामक भ्रष्ट मुनि का कथन पूर्ण हुआ ।।