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मरणकण्डिका - ३८९
साधुः सार्थ परित्यज्य, नीयमानो महाभयम् ।
सहते दारुणं दुःखं, प्राप्तो गौरव-काननम् ॥१३६१ ॥ अर्थ - साधु समूह रूपी सार्थ को छोड़कर वे पार्श्वस्थ साधु ऋद्धि-गौरव, रस गौरव एवं सात गौरव से भरे गहन वन में प्रविष्ट होकर दारुण अर्थात् तीव्र दुख सहन करते हैं।॥१३६१ ।।
शल्य-दुःकण्टकैर्विद्धाः, पतिता दुःखमासते।
एकाकिनोऽटवीं याता, विद्धा वा विष-कण्टकैः ।।१३६२ ।। अर्थ - जैसे विषैले काँटों से बिंधे हुए मनुष्य अटवी में अकेले पड़े हुए दुख पाते हैं, वैसे ही मिथ्या, माया और निदान शल्य रूपी काँटों से विद्ध हुए वे पार्श्वस्थ मुनि महादुखमयी स्थान को प्राप्त होते हैं ।।१३६२ ।।
साधः सार्थपथं त्यक्त्वा, स पार्श्वे यानि संयतः।
पार्श्वस्थानां क्रियां याति, यश्चारित्र-विवर्जितः ।।१३६३ ॥ अर्थ - वह पार्श्वस्थ साधु सार्थपथ अर्थात् साधुवर्ग के मार्ग को छोड़कर ऐसे मुनि के पास चला जाता है जो चारित्र से भ्रष्ट होकर पार्श्वस्थ मुनियों के सदृश आचरण करता है।।१३६३ ॥
कषायाक्ष-गुरुत्वेन, पश्यन्वृत्तं तृणं यथा । भूत्वा निर्धर्मको याति, पार्श्वस्थानां सदा क्रियाः॥१३६४॥
(इति पार्श्वस्थः) अर्थ - जो भ्रष्ट मुनि की संगति करता है वह कषाय एवं इन्द्रियों की तीव्रता के भार से युक्त होता हुआ महाव्रतादि रूप चारित्र को तृण सदृश तुच्छ समझता है। इस प्रकार धर्मरहित होता हुआ वह साधु पार्श्वस्थ अर्थात् भ्रष्ट मुनि का आचरण करने लगता है ।।१३६४ ॥
प्रश्न - पार्श्वस्थ मुनि को चारित्रभ्रष्ट क्यों कहा गया है?
उत्तर - कषाय और इन्द्रिय विषयों की तीव्रता से राग-द्वेषरूप अशुभ परिणाम होते हैं। ये अशुभ परिणाम तत्त्वज्ञान के प्रतिबन्धक हैं, अत: उस मुनि का ज्ञान दूषित हो जाता है जिससे वह चारित्र को सारहीन मानता है। चारित्र में आदरभाव न होना ही चारित्रभ्रष्टता है | चारित्रभ्रष्ट होकर वह मुनि पार्श्वस्थ मुनियों की सेवा में लग जाता है।
|| इस प्रकार पार्श्वस्थ का कथन पूर्ण हुआ॥
कुशील नामक भ्रष्टमुनि अक्ष-चौर-हताः केचित्, कषाय-व्याल-भीतितः।
उन्मार्गेण पलायन्ते, साधु-सार्थस्य दूरतः॥१३६५॥ अर्थ - कोई साधु इन्द्रिय रूपी चोरों द्वारा पीड़ित होकर तथा कषाय रूपी हिंसक पशुओं से भयभीत सार्थ अर्थात् संघ को दूर से छोड़ कर उन्मार्ग अर्थात् रत्नत्रय से विपरीत मार्ग पर भाग जाते हैं।।१३६५ ।।