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मरणकण्डिका -३१३
छिद्रापेक्षाः सेव्यमाना विभीमा, नो पार्श्वस्थाः कस्य कुर्षन्ति दुःखम्। क्रोधाविष्टाः पन्नगा वा, द्विजिह्वाः विज्ञायेत्थं दूरतो वर्जनीयाः ।।१३८१॥
अर्थ - ये पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनि दूसरों के दोष ढूंढने वाले हैं, भयानक हैं और क्रोधित सर्प के समान या दुमुँही के समान हैं। जो इनकी संगति करता है उनमें से ये किसको दुख नहीं देते ? अपितु सभी को दुख देते हैं। ऐसा जान कर इन्हें दूर से ही छोड़ देना चाहिए ||१३८१॥
तृण-तुल्यमवेत्य विशिष्टफलं, परिमुच्य चरित्रमपास्तमलम् । बहुदोष-कषाय-हषीक-दशा, निवसन्ति चिरं कुगतावषशाः ।।१३८२ ।।
(इति संसक्ता) अर्थ - अनुपम फल देने वाले निर्दोष चारित्र को तृण के समान मान कर छोड़ देते हैं और अत्यधिक दोषों के निधान स्वरूप कषायों एवं इन्द्रियों के आधीन हो जाते हैं। इस प्रकार अशुभ भावों के वशवर्ती हो ये भ्रष्ट मुनि कुगतियों में चिरकाल तक निवास करते हैं ।।१३८२॥
इस प्रकार संसक्त मुनि का कथन पूर्ण हुआ।
दृष्टान्त पूर्वक भ्रष्ट मुनियों की अवस्था कश्चिद्दीक्षामुपेतोऽपि, कषायाक्षं निषेवते।
तैलमागुरवं बस्तः, प्रतिवाति पिवन्नपि ॥१३८३॥ अर्थ - जैसे अगुरु चन्दन का अत्यन्त सुगन्धित तेल पीता हुआ भी बकरा अपनी दुर्गन्ध नहीं छोड़ता, वैसे ही जिनदीक्षा लेकर अर्थात् असंयम का परित्याग कर देने पर भी कोई-कोई साधु कषायों और इन्द्रियविषयों का आनन्द से सेवन करते हैं। अर्थात् कषायों और विषयों की भयंकर दुर्गन्ध नहीं छोड़ पाते ।।१३८३ ॥
मुक्त्वापि कश्मन ग्रन्थं, कषायाक्षं न मुञ्चति ।
हित्वापि कञ्चुकं सर्पो, विजहाति विषं नहि ॥१३८४॥ ___ अर्थ - जैसे सर्प कांचली छोड़ देता है किन्तु विष नहीं छोड़ पाता, वैसे ही कितने मनुष्य बाह्य परिग्रह त्याग करके भी कषायों एवं इन्द्रिय-विषयों को नहीं छोड़ पाते ।।१३८४ ।।
___ दीक्षितोप्यधम: कश्चित्, कषायाक्षं चिकीर्षति ।
शूकरः शोभनैः रत्नैर्मलं तृप्तोपि कांक्षति ॥१३८५ ॥ अर्थ - जैसे सूकर सुन्दर एवं उत्तम रत्न स्वरूप उत्तमोत्तम भोजन से तृप्त हो जाने पर भी मल (विष्ठा) की इच्छा करता रहता है, वैसे ही कोई-कोई नीच मनुष्य दीक्षित होकर भी कषाय भावों की मलिनता एवं इन्द्रिय भोगों की वांछा करते रहते हैं अर्थात् उन्हें नहीं छोड़ पाते ।।१३८५॥
प्रश्न - इस श्लोक का तात्पर्यार्थ क्या है ? उत्तर - इसका तात्पर्य यह है कि जैसे सूकर विष्ठाभक्षण का ही अभ्यासी है अत: वह कदाचित् अच्छे