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मरणकण्डिका- ३९५
गृहवास तथा त्यक्त्वा, कश्चिद्दोष - शताकुलम् । कषायेन्द्रिय- दोषात, याति तं भोग-तृष्णया ।। १३९२ ।।
अर्थ - वैसे ही सैकड़ों दोषों से युक्त गृहवास को छोड़कर कोई दीक्षा ग्रहण करता है किन्तु भोगों की तृष्णा के वशवर्ती हो कषाय और इन्द्रियविषयों की पीड़ा से भरे हुए गृहबास को पुनः स्वीकार कर लेता है ॥१३९२ ।।
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प्रश्न
गृहवास को सैकड़ों दोष युक्त एवं बुरा क्यों कहा जा रहा है ?
में
उत्तर - गृहस्थाश्रम ममत्व का अनुष्ठान अर्थात् "यह मेरा है" इस ममत्व का मूल कारण है, इसके स्वामी को माया एवं लोभ के जनक ऐसे जीवनोपाय सदैव करने पड़ते हैं, यह सर्व कषायों की खान है, दूसरों को पीड़ा देने तथा दूसरों का अनुग्रह करने में सदैव तत्पर रहता है, षट्काय के जीवसमूह के विधात का द्वार है, परिजनों द्वारा दुराचारादि का सेवन कर लेने के कारण अपकीर्ति होती है अतः यह मलिनता का कारण है। इसका निवासी मन, वचन, काय से सचित्ताचित द्रव्यों के ग्रहण और वृद्धि का सदैव प्रयास करता रहता है। इसमें रह कर मनुष्य असार में सारता, अनित्य में नित्यता, अशरण में शरणता, अशुचि में शुचिता, दुख सुखपना, अहित में हितपना, अनाश्रय में आश्रयपना तथा शत्रु में मित्रता मानता हुआ सब ओर दौड़ता है। जिससे निकलना कठिन है ऐसे काल रूपी लोहे के पिंजरे रूपी पेट में गये सिंह के सदृश, जाल में फँसे हिरणों के सदृश, अन्याय रूपी कीचड़ में धँसे वृद्ध हाथी के सदृश, पाशबद्ध पक्षी सदृश, जेल में बन्द चोर सदृश, व्याघ्रों के मध्य बैठे हुए निर्बल हिरण के सदृश एवं जाल में फँसे मगरमच्छ के सदृश, जिस गृहस्थाश्रम में रहने वाला गृहस्थ काल रूपी अत्यन्त गाढ़ अन्धकार के पटल से आच्छादित हो जाता है; उसे सदा राग रूपी महानाग सताते रहते हैं, चिन्ता रूपी डाकिनी सदा मुख फाड़े रहती है, शोक रूपी भेड़िये उसके पीछे दौड़ते रहते हैं, कोप रूपी अग्नि सतत जलाती रहती है, दुराशारूपीलताएँ उसे चारों ओर से वेष्टित किये रहती हैं, प्रिय वियोगरूपी बज्रपात उसके हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर देता है, माया रूपी बुढ़िया उससे निरन्तर चिपकी रहती है, तिरस्कार रूपी कठोर कुठार उसे काटता रहता है, अपयश रूपी मल से उसका चित्त मलिन रहता है, महामोह रूपी सबल हाथी के द्वारा वह मारा जाता है, पाप रूपी पातकों द्वारा वह ज्ञान शून्य कर दिया जाता है, भय रूपी सुइयों से सतत कौंचा जाता है, प्रतिदिन श्रमरूपी कौओं के द्वारा खाया जाता है। ईर्षारूपी काजलसे विरूप किया जाता है, परिग्रह रूपी मगरमच्छों द्वारा पकड़ा जाता है, असूयारूपी पत्नी का प्यारा होता है, मानरूपी दानव का स्वामी होता है। वह संयममार्ग पर पैर नहीं रख पाता, अपने आप को संसाररूपी जेल से नहीं छुड़ा पाता, मृत्यु रूपी विषवृक्ष को नहीं जला पाता, मोहरूपी साँकल को नहीं तोड़ पाता, अपने को नाना प्रकार की योनियों में जाने से नहीं रोक पाता, कर्मों का जड़मूल से विनाश नहीं कर पाता, विशाल एवं धवल चारित्र रूपी तीन छत्रों की छाया का सुख प्राप्त नहीं कर पाता एवं अपनी आत्मा को सुखभूत स्थान पर नहीं ले जा पाता, इसी कारण गृहवास को दोषपूर्ण कहा गया है।
दीक्षा लेकर भी विषय कषायों के वशीभूत होने वालों की स्थिति
बन्ध-मुक्तः पुनर्बन्धं, निश्चितं स विवासति ।
यो दीक्षितः कषायाक्षान्सिषेवयिषते कुधीः ।। १३९३ ॥