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मरणकण्डिका - ३९६
अर्थ - जो दीक्षित होकर भी कषायों एवं इन्द्रियों के विषयों का सेवन करने की इच्छा करता है वह दुर्बुद्धि निश्चित ही बन्धनमुक्त होकर मानों पुन: बन्धन में पड़ना चाहता है ।।१३९३॥
दीक्षित्वापि पुनः साधुः, कषायाक्ष-कलिं यदि।
जिघृक्षति कलिं मुक्त्वा , पुन: स्वीकुरुते कलिम् ॥१३९४॥ अर्थ - जो दीक्षित होकर भी कषाय एवं इन्द्रिय विषय रूपी कलह को चाहता है वह मनुष्य कलह का त्याग कर मानों पुन: उसी कलह को स्वीकार करता है, क्योंकि इस लोक में कषायों एवं इन्द्रियविषयों के कारण ही कलह होती है ॥१३९४ ॥
विधाय ज्वलितं हस्ते मुर्मुरं स बभुक्षते।
आक्रामति स कृष्णाहिं, व्याघ्रं स्पृशति सक्षुधम् ।।१३९५ ।। अर्थ - जो दीक्षित होकर पुनरपि कषाय एवं इन्द्रिय विषयों को स्वीकारता है वह हाथ में स्थित धधकते अलात को मानों नहीं छोड़ना चाहता, या कृष्ण सर्प को लांघ कर जाना चाहता है, या क्षुधा-पीड़ित व्याघ्र का स्पर्श करना चाहता है॥१३९५ ॥
कण्ठालग्न-शिलोऽगाधं, सोऽज्ञानो गाहते हृदम् ।
अबलो वापि यो दीक्षां, कषायाक्षं प्रपद्यते ।।१३९६ ॥ अर्थ - जो दीक्षा लेकर भी कषायां एवं इन्द्रियों के आधीन रहता है वह अज्ञानी मानों अपने गले में पत्थर की शिला बाँध कर अगाध समुद्र में प्रवेश करता है।।१३९६ ॥
गृहीतोऽक्ष-ग्रहाघ्रातो, नापरो ग्रह-पीडितः।
अक्षयः स सदा दोषं, विदधाति कदाग्रहः ।।१३९७ ॥ अर्थ - जो इन्द्रिय रूपी ग्रह से पकड़ा हुआ है, वही यथार्थतः ग्रहपीड़ित है। जो शनि आदि ग्रह से पीड़ित है वह ग्रह पीड़ित नहीं है, क्योंकि ग्रह तो कदाचित् (अधिक से अधिक एक भव में) ही कष्ट देते हैं किन्तु इन्द्रियरूपी ग्रह भव-भव में सतत कष्ट देते हैं ।।१३९७ ॥
कषाय-मत्त उन्मत्तः, पित्तोन्मत्तोऽपि नो पुनः ।
प्रमत्तं कुरुते पापं, द्वितीयो न तथा स्फुटम् ॥१३९८ ।। अर्थ - जो कषाय से उन्मत्त है, वही यथार्थत: उन्मत्त पागल है, जो पित्त प्रकोप से उन्मत्त है वह उन्मत्त नहीं है, क्योंकि जो कषाय से उन्मत्त है वह जैसा पाप करता है, पित्तज्वर से उन्मत्त वैसा पाप नहीं करता ।।१३९८ ।।
प्रश्न - कषायोन्मत्त और पित्त से उन्मत्त, इन दोनों में क्या अन्तर है ?
उत्तर - पित्तज्वर से उत्पन्न उन्माद मात्र विवेकमूलक ज्ञान का ही तिरस्कार करता है किन्तु एक-एक भी क्रोधादि कषाय हिंसादि पापों में और विषय-वासनाओं में प्रवृत्ति कराती है। वे प्रवृत्तियाँ कर्मों के स्थितिबन्ध एवं अनुभागबन्ध के साथ-साथ जीव के संसार-भ्रमण को भी वृद्धिंगत करती हैं, अतः इन दोनों प्रकार के उन्मादों में बहुत बड़ा अन्तर है।