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परणकण्डिका - ३९४
पदार्थ खाकर तृप्त हो गया हो, फिर भी संस्कारों की वशवर्तिता से विष्ठा को देखते ही उसे खाने की इच्छा करेगा । वैसे ही मनुष्य को गृहस्थावस्था में पद-पद पर राग, द्वेष, लोभ, ईर्षा, मात्सर्य एवं मायाचार के भाव तथा मनोहर भोजन-पानादि विषयों के सेवन का अभ्यास रहता है अत: दीक्षित होकर भी कदाचित् कोई अधम पूर्व संस्कारों के वशवर्ती हो उन्हीं कषायों एवं विषयों में तल्लीन रहते हैं और उन्हीं को चाहते हैं।
दुशन्नों द्वारा कहते हैं कि गुफ के उपदेश से एवं स्वयं के पुरुषार्थ से भोगों का
तथा परिग्रह का त्याग करके भी पुन: उन्हीं की वांछा करता है विहाय हरिणो यूथं, व्याध-भीत: पलायितः ।
स्वयं पुनर्यथा याति, वागुरां यूथ-तृष्णया॥१३८६ ।। अर्थ - जैसे शिकारी के भय से भागा हुआ कोई हिरण अपने झुण्ड को जाल में फंसा देखकर भी झुण्ड को प्राप्त करने की तृष्णा से स्वयं आकर पुन: उस जाल में फंस जाता है।।१३८६ ।।
आरामे विचरन्स्वेच्छं, पतत्री पञ्जर-च्युतः।
यथा याति पुनर्मूढः, पञ्जरं नीड-तृष्णया ॥१३८७ ॥ अर्थ - जैसे पिंजरे से मुक्त हुआ पक्षी उद्यानों में स्वेच्छा पूर्वक विचरण करते हुए स्वयं ही अपने नीड़ अर्थात् आवासप्रेम की आसक्ति से उसी पिंजरे में चला जाता है ॥१३८७ ।।
उत्तारित: करीन्द्रेण, पङ्कत: कलभो यथा।
स्वयमेव पुनः पळू, प्रयाति जल-तृष्णया ।।१३८८ ॥ अर्थ - जैसे महती कीचड़ में फँसा हाथी का बच्चा हाथी के द्वारा निकाल दिया गया, किन्तु जल की तृष्णावश अर्थात् जल पीने की इच्छा से वह स्वयं ही जाकर उसी कीचड़ में फँस गया ||१३८८ ।।
उड्डीय शाखिनः पक्षी, सर्वतो वह्निवेष्टितात् ।
तत्रैव नीड-लोभेन, यथा याति पुनः स्वयम् ॥१३८९॥ अर्थ - पूर्णरूपेण अग्नि से घिरे हुए वृक्ष का त्याग कर अपने घोंसले के लोभ से जैसे कोई पक्षी पुनरपि स्वयं उसी वृक्ष पर आ जाता है।।१३८९ ॥
लयमानोऽहिना सुप्तो, जाग्रतोत्थापितो यथा।
कौतुकेन तमादातुं, कश्चिदिच्छति मूढ-धीः ॥१३९० ॥ अर्थ - जैसे किसी सोते हुए मनुष्य के ऊपर से सर्प जा रहा था। किसी दयावान् मनुष्य ने उसे जगाकर उठा दिया, किन्तु वह मूढ़ बुद्धि उठ कर कौतूहलवश उस सर्प को पकड़ना चाहता है ।।१३९० ॥
स्वयमेवाशनं वान्तं, निर्लज्जो निघृणाशयः ।
सारमेयो यथानाति, कृपणोऽशन-तृष्णया॥१३९१ ।। अर्थ - जैसे कोई कृपण, निर्लज्ज और घिनावना कुत्ता भोजन की तृष्णावश अपने ही वमन किये हुए भोजन को लोलुपता से खाता है ॥१३९१ ।।