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अर्थ - जो कषाय एवं इन्द्रियों के दोष के कारण सामान्य ध्यानादि से विरक्त हो चारित्र से गिर जाता है वह अपने आचरण से परिश्रान्त अर्थात् च्युत होता हुआ साधुसंघ से पृथक् हो जाता है अर्थात् साधु-संघ को छोड़ देता है ।। १३७७ ।।
भरणकण्डेका - ३९२
संसक्त नामक भ्रष्ट मुनि
कषायेन्द्रिय दोषेण, वृत्तात् सामान्य - योगतः । यः प्रभ्रष्टः परिश्रान्त:, स भ्रष्टः साधु-सार्थतः ॥ १३७७ ।।
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अर्थ कोई दुर्बुद्धि मुनि कषाय एवं इन्द्रियों की तीव्रता द्वारा निर्मित सम्पूर्ण दोषों से संसक्त अर्थात् युक्त होकर उन सब अशुभ स्थानों को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् सर्व अशुभ परिणामों को प्राप्त हो जाते हैं ॥१३७८ ॥
स्थानानि तानि सर्वाणि, कषायाक्ष-गुरुकृता: ।
संसक्ताः सकलैर्दोषैः केचिद्रच्छन्ति दुर्धियः ॥१३७८ ।।
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इत्येते साधवः पञ्च, निन्दिता जिन शासने ।
प्रत्यनीक-क्रियारम्भाः कषायाक्ष-गुरुकृताः ॥ १३७९ ॥
अर्थ - इस प्रकार अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, यथाछन्द और संसक्त ये पाँच प्रकार के साधु जिनागम में निन्दनीय कहे गये हैं। ये सदा कषायों एवं इन्द्रिय विषयों में आसक्ति की प्रबलता के कारण साधु पद के विरुद्ध आचरण करते हैं । १३७९ ।।
दुरन्ताश्चञ्चला दुष्टा, वृत्त सर्वस्व हारिणः ।
दुर्जयाः सन्ति जीवानां, कषायेन्द्रिय तस्कराः ॥१३८० ॥
अर्थ- इन्द्रिय-विषय एवं कषायरूप परिणाम ही यथार्थतः दुर्जय चोर हैं। ये अन्त में अत्यन्त खोटा फल देते हैं, दुष्ट हैं, अनवस्थित होने से चंचल हैं और साधुओं का चारित्ररूपी धन हरण करने वाले हैं ।। १३८० ॥ साधुओं के भी कषायरूप परिणाम और इन्द्रिय विषयभोग के परिणाम क्यों होते हैं? और इन्हें चंचल एवं नित्यादि क्यों कहा है?
प्रश्न
उत्तर - संसारी जीवों के साथ जब तक चारित्र मोहनीय कर्म का सम्बन्ध रहेगा तब तक आत्मा में इन्द्रिय-विषयों का और कषायों का सद्भाव रहेगा ही रहेगा। जिन जीवों के चारित्रमोह के क्षयोपशम की प्रकर्षता नहीं होती वे जीव बड़े कष्ट से इन पर विजय प्राप्त कर पाते हैं। इन्हीं में से जो जीव इनके आधीन हो जाते हैं वे चारित्र से भ्रष्ट होकर बह जाते हैं। इन्द्रियों और कषायों का परम्परागत सम्बन्ध बना रहता है अतः ये नित्य सदृश हैं। कषाय परिणाम कभी एक स्वरूप में नहीं रहते, कभी क्रोध, कभी मान कभी लोभादि रूप होते रहते हैं अतः इन्हें चंचल कहा है । यह अनुभवसिद्ध बात है कि भोगों के अलाभ में या प्राप्ति हो जाने पर या उनका नाश हो जाने पर जीवों को कष्ट होता है अतः इन भोगों को दुष्ट कहा गया है।