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भरणकण्डिका - ३८८
निष्प्रमादी अर्थात् जाग्रत रखते हैं, जिससे उनका चरित्रकी धन सुरक्षित रह जाता है, लोनिविदाधु को विषयरूपी चोर लूट नहीं पाते । उक्त कथन का यही तात्पर्य अर्थ है।
अवसन्न नामक भ्रष्ट मुनि प्रमाद-वशतो यातो, भ्रष्टो विषय-कानने।
तदीयं व्रत-सर्वस्वं, लुप्यतेऽक्षमलिम्लुचैः॥१३५६ ।। अर्थ - जो साधु विषयरूपी वन में प्रमाद के वशीभूत हो मार्गभ्रष्ट हो जाते हैं, उनके व्रतरूपी सर्वस्व धन को इन्द्रियरूपी चोर बलात् लूट लेते हैं ।।१३५६ ॥
तमसंयम-दन्ष्ट्राभिः, संक्लेश-दशनैः शितैः।
कषाय-श्वापदाः क्षिप्रं, दूरक्षा भक्षयन्ति च ।।१३५७ ।। अर्थ - अधवा निर्यापकाचार्य को छोड़कर मार्गभ्रष्ट स्वच्छन्द रहने वाले साधु को कषायरूपी दुष्ट श्वापद असंयमरूपी दाढ़ों से और संक्लेश रूपी पैने दाँतों से शीघ्र खा जाते हैं ||१३५७ ॥
यः साधुः सार्थतो भ्रष्टः, सिद्धि-मार्गानुयायिनः । सोऽवसन्न-क्रियाः साधुः, सेवमानोऽस्त्यसंयतः ॥१३५८॥ कषायाक्ष-गुरुत्वेन, तपस्वी सुख-भावनः। अवसन्न-क्रियो भूत्वा, सेवते करणालसः॥१३५९ ।।
(इति अवसन्नः) अर्थ - जो साधु निर्वाणमार्ग में साथ चलने वाले सार्थ अर्थात् संघ को छोड़कर भ्रष्ट हो जाता है, वह अवसन्न क्रिया अर्थात् आवश्यक क्रियाओं में शिथिल होता हुआ असंयमी हो जाता है।
सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने की इच्छायुक्त वह तपस्वी कषाय एवं इन्द्रिय विषयों के आधीन होकर तेरह प्रकार के चारित्र में आलसी होता हुआ शिथिलाचारी हो जाता है। ऐसा साधु अवसन्न कहलाता है॥१३५८१३५९ ॥
इस प्रकार अवसन्न साधु प्रकरण पूर्ण हुआ।
पार्श्वस्थ नामक भ्रष्ट मुनि हृषीक-तस्करीमैः, कषाय-श्वापदैरपि।
विमोच्य नीयते मार्गे, साधुः सार्थस्य पार्श्वत: ।।१३६०॥ अर्थ - जो साधु इन्द्रियरूपी चोरों और कषायरूपी श्वापदों अर्थात् हिंसक जीवों द्वारा पकड़े जाने के कारण सुखी जीवन में आसक्त होता हुआ साधुरूपी व्यापारियों को छोड़ देता है और स्वच्छन्द होकर पार्श्वस्थ अर्थात् भ्रष्ट मुनियों का आचरण करने लगता है वह पार्श्वस्थ कहलाता है॥१३६० ।।