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भरणकण्डिका ३८६
* पुष्पदंता आर्यिका की कथा *
अजितावर्त्त नगरके राजा पुष्पचूलकी पट्टरानीका नाम पुष्पदंता था। किसी दिन संसारसे विरक्त हो राजाने दैगंबरी दीक्षा ग्रहण की। देखादेखी पुष्पदंताने भी आर्यिकाप्रमुख ब्रह्मिला के निकट आर्यिका दीक्षा ली किन्तु इसे अपने रूप, सौभाग्य पट्टरानी पदका बहुत अभिमान था जिससे वह किसी अन्य आर्यिकाका विनय नहीं करती, न किसीको नमस्कार करती, सदा अपनी उच्चताका प्रदर्शन करती रहती। अपने शरीरमें सुगंधित तैलादिका संस्कार करती। एक दिन गणिनी ब्रह्मिला आर्यिकाने उसे बहुत समझाया कि देखो ! आर्यिका पदमें ऐसा शरीर - संस्कार वर्जित हैं तथा तुम्हें गुरुजनोंका, आयिंकाओंका विनय करना चाहिये इत्यादि । किन्तु पुष्पदंताने मायाचारसे असत्य वचन कहा कि मेरे शरीर में निसर्गत: भुगंध आती है मैं कुछ नहीं लगाती, इत्यादि । इस मायाचारके साथ उसकी मृत्यु हुई अर्थात् उसने अंततक माया शल्यको नहीं छोड़ा। फलस्वरूप वह चंपापुरीके सेठ सागरदत्तके यहाँ दासी होकर जन्मी ।
निदान - माया - विपरीतदर्शनैर्विदार्यतेऽङ्गी निशितैः शरैरिव ॥
विबुध्य दोषानिति शुद्ध-बुद्धयस्त्रिधापि शल्यं दवयन्ति यत्नतः || १३५० ॥
अर्थ - निदान, माया एवं मिथ्यात्व इन तीन शल्यों द्वारा यह प्राणी इसप्रकार विदीर्ण किया जाता है मानों पैने और नुकीले बार्णो द्वारा ही विदीर्ण हुआ हो, अतः इन शल्यों के दोषों को जानकर शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष प्रयत्नपूर्वक मन, वचन एवं काय से सदा के लिए इन शल्यों को दूर कर देते हैं ।। १३५० ।।
विद्धो मिथ्यात्व - शल्येन, धार्मिको वत्सलाशयः । मरीचिरभ्रमद्धीमे, चिरं संसार कानने ।। १३५१ ।।
अर्थ • जो धर्मप्रेमी एवं साधुओं के प्रति वात्सल्यभाव रखने वाला था, ऐसा गुणज्ञ मरीचिकुमार मिथ्याशल्य से वेधित हो जाने के कारण चिरकाल पर्यन्त संसाररूपी भयानक वन में भटकता रहा ।। १३५१ ॥
* मरीचि की कथा
आदिनाथ तीर्थंकरके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्त्तीके हजारों पुत्रोंमें एक मरीचिकुमार नामका पुत्र था । आदिनाथ भगवान् जब विरक्त होकर दीक्षित हुए तब उनके साथ यह मरीचि भी दीक्षित हुआ था किन्तु क्षुधा आदिसे पीड़ित होकर अन्य राजाओं के समान यह भी भ्रष्ट हो गया । वृक्षकी छाल पहनकर जटाधारी तापसी बन गया। आत्मा सर्वथा शुद्ध है, भोक्तामात्र है, कर्त्ता नहीं, कर्त्ता तो प्रकृति है; इत्यादि सांख्याभि प्रायानुसार मिथ्यात्वा चिरकाल तक प्रचार करता रहा। वृषभदेवको केवलज्ञान प्राप्त होनेके अनंतर उन भ्रष्ट राजाओंने समवशरणमें दिव्यध्वनिको सुनकर जिनदीक्षा ग्रहण की किन्तु मरीचिने तीव्र मिध्यात्वके कारण दीक्षा नहीं ली। आयुके अंत में मरकर वह स्वर्गमें देव हुआ। पुनः मनुष्य लोकमें ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होकर पूर्वभव के संस्कारवश उसी मिथ्यामतमें परिव्राजक साधु बन गया। पुनः स्वर्ग गया। इसके अनंतर यत्र तत्र चारों गतियोंमें, चौरासी लाख योनियोंमें, नस-स्थावर पर्यायोंमें चिरकाल तक - इक्कीस हजार वर्ष कम एक कोटा कोटी सागर प्रमाण