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मरणकण्डिका - ३८३
अर्थ - जीवों को शत्रुजन तो एक ही भव में दुख देते हैं किन्तु भोग जन्म-जन्म में सतत दुस्सह दुख ही दुख देते हैं ।। १३३५ ॥
निदान प्रेक्षते भोगान्न, संसारमनारतम् ।
मध्वेष प्रेक्षते पातं, तद-स्थायी न दुस्सहम् ।। १३३६ ।।
अर्थ - जैसे कुए की दीवार के तटभाग पर लटका हुआ कोई अज्ञानी मनुष्य मक्खियों के छरे में गिरती हुई मधु बूंद को तो देखता है अर्थात् इसके स्वाद का लोलुपी है किन्तु अपने कूप- पतन को और उससे होने वाले दुस्सह दुखों को नहीं देखता अर्थात् नहीं सोचता, वैसे ही निदान करने वाला साधु भोगों को तो देखता है किन्तु अपने दीर्घ संसार को नहीं देखता । अर्थात् ये भोग मुझे चिरकाल तक संसार वन में भटकाएँगे, यह नहीं सोचता ॥ १३३६ ॥
भोग मध्ये प्रदीव्यन्ति, जन्म- दुःखमनारतम् ।
अपश्यन्तो मृति- त्रास, जाल - मध्ये झष इव ।। १३३७ ।।
अर्थ- जैसे धीवर के जाल में फँसी हुई मछली मरण त्रास को न देखते हुए जाल में क्रीड़ा करती हैं, वैसे ही भोग लोलुपी अज्ञानी निरन्तर एवं अनेक जन्मों में दुख देने वाले भोगों के मध्य रमता है किन्तु उससे होने वाले दुखों को नहीं देखता ॥ १३३७ ॥
प्राप्यापि कृच्छ्रतो जीवो, देव-मानव सम्पदम् ।
प्रवासीव निजं स्थानं, कुयोनिं याति निश्चितम् ।। १३३८ ।।
अर्थ - जैसे देशान्तर में गया हुआ मनुष्य सर्वत्र घूमकर अपने घर को ही जाता है, वैसे ही संयम का कष्ट उठाकर किन्तु निदान के वशीभूत होकर कष्ट से प्राप्त होने वाली देव एवं अर्धचक्री आदि की सम्पदा को अर्थात् भोगों को भोग कर आयु पूर्ण होते ही पुन: नरक - तिर्यंचरूप कुयोनियों में चला जाता है ॥१३३८ ॥
किं करिष्यन्ति ते भोगा, योनिं यातस्य कुत्सिताम् ।
किं कुर्वन्ति मृता वैद्या, म्रियमाणस्य देहिनः ।। १३३९ ।।
अर्थ - क्या कभी मरा हुआ वैद्य किसी अन्य रोगी की चिकित्सा कर सकता है ? अपितु नहीं ही कर सकता। उसी प्रकार क्या निदान से प्राप्त होने वाली सम्पत्ति या स्त्री आदि भोग कुयोनियों में जाने वाले भोगी एवं पापी जीव का कुछ भी उपकार कर सकते हैं ? कदापि नहीं कर सकते ॥१३३९ ॥
संसारं पुनरायान्ति, निदानेन नियन्त्रिताः ।
दूरं यातोऽपि पक्षीव, रश्मिना निजमास्पदम् ॥१३४० ॥
अर्थ- जैसे लम्बे धागे से बँधा हुआ पक्षी सुदूर जाकर भी पुन: वहीं लौट आता है वैसे ही निदान द्वारा नियंत्रित अर्थात् निदान रूपी रस्सी से बँधा हुआ प्राणी स्वर्गादि में जाकर भी पुनः पुनः कुयोनियों में जन्म
मरण करता रहता है ।। १३४० ॥