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मरणकण्डिका - ३५१
निक्षेप सत्य - किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु के समारोप करने वाले वचन को निक्षेप सत्य या स्थापना सत्य कहते हैं। जैसे चन्द्रप्रभु भगवान की प्रतिमा को चन्द्रप्रभु कहना।
नाम सत्य - जाति, गुण एवं क्रिया आदि की अपेक्षा न रख कर केवल व्यवहार चलाने के लिए जो किसी का संज्ञाकर्म किया जाता है, उसे नाम सत्य कहते हैं। जैसे जिनदत्त या महावीर आदि।
रूप सत्य - पुद्गल के रूपादि अनेक गुणों में से रूपगुण की प्रधानता से जो वचन कहा जाता है उसे रूप सत्य कहते हैं। जैसे शरीर में पुद्गल के अनेक गुण एवं वर्णादि होते हुए भी कौआ को काला और बगुला को श्वेत कहना।
प्रतीतिसत्य - किसी विवक्षित पदार्थ की अपेक्षा किसी दूसरे पदार्थ के स्वरूप का कथन करना प्रतीति सत्य है। जैसे किसी छोटे या पतले पदार्थ या मनुष्य को देखकर अन्य पदार्थ या मनुष्य को मोटा या काला कहना।
सम्भावना सत्य - असम्भवता का परिहार करते हुए वस्तु के किसी धर्म के निरूपण करने में प्रवृत्त वचन को सम्भावना सत्य कहते हैं। जैसे सोमदत्त भुजाओं से समुद्र पार कर सकता है। या इन्द्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है।
उपमा सत्य - दूसरे प्रसिद्ध सदृश पदार्थ को उपमा कहते हैं। इसके आश्रय से जो वचन बोला जाय उसे उपमा सत्य कहते हैं। जैसे चन्द्रमुखी कन्या, पल्योपम, सागरोपमादि ।
व्यवहार सत्य - यद्यपि वर्तमान काल में वस्तु में वह परिणाम नहीं है तथापि अतीत और अनागत परिणामरूप यही द्रव्य है ऐसा मान कर कहा गया वचन व्यवहार सत्य है। भात पकाओ या चटाई बुनो। यहाँ ये दोनों परिणाम वर्तमान में नहीं हैं, क्योंकि चावल पक जाने पर ही भात बनता है और बुन लेने पर ही चटाई कहलाती है फिर भी अनागत परिणाम की अपेक्षा इनका व्यवहार होता है। अथवा - नैगमादि नयों की प्रधानता से जो वचन बोला जाय उसे व्यवहार सत्य कहते हैं। जैसे भात पकाता हूँ यह नैगम नय की अपेक्षा सत्य है और संग्रहनय की अपेक्षा सम्पूर्ण सत्य है' अथवा 'अमुक बात सम्पूर्ण असत्' है आदि ।
भाव सत्य - जिस वचन के द्वारा अहिंसारूप भाव का पालन किया जाता है, वह वचन भाव सत्य है। जैसे 'देखकर सावधानता पूर्वक प्रवृत्ति करो' इत्यादि । अथवा आगमोक्त विधि-निषेध के अनुसार अतीन्द्रिय पदार्थों में संकल्पित परिणामों को भाव सत्य कहते हैं। जैसे शुष्क, पक्क, तप्त और नमक, मिर्च, खटाई आदि से अच्छी तरह मिलाया हुआ द्रव्य प्रासुक है। यद्यपि यहाँ पर सूक्ष्म जीवों को इन्द्रियों से नहीं देख सकते तथापि आगम प्रामाण्य से उस द्रव्य की प्रासुकता सत्य है। इस प्रकार ये दस भेद वाले सत्य कहे गये हैं, इसी प्रकार और अन्य भी जान लेना चाहिए।
इन उपर्युक्त सत्य वचनों के अतिरिक्त जो वचन हैं वे असत्य हैं। दोनों मिले हुए उभयरूप वचन 'सत्यमृषा' हैं, इनमें अप्रशस्त वचन असत्य हैं और मैंने सब दे दिया', 'मैंने सब भोग लिया' इत्यादि वचन उभयरूप हैं।
भाषा समिति में प्रवृत्त साधु अनुभय अर्थात् असत्यमृषा वचन बोल सकते हैं अत: उन ग्राहय वचनों के भेद गद्य द्वारा दर्शाये जा रहे हैं -