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मरणकण्डिका - ३६९
वाला हो तो भी निदान दोष के कारण वह सुदुस्तर भवसमुद्र को प्राप्त होता है। अर्थात् जिसे पार करना कठिन है ऐसे संसार में परिभ्रमण करता है तो फिर खोटी बुद्धिवाले अन्य सामान्य साधु की तो क्या गिनती है ? वह तो संसार सागर में डूबेगा ही॥१२७८ ॥
निदानजन्य मूर्खता निदानं योल्प-सौख्याय, विधत्ते सौख्य-निस्पृहः ।
काकिण्या स मणि दत्ते, शङ्के कल्याण-कारणम् ॥१२७९ ॥ अर्थ - जो मुक्ति के उत्कृष्ट सुख का अनादर करके भोगजन्य अल्प सुखों का निदान करता है, वह बहुमूल्य मणि में शंका करता है। (कि यह उपयोगी है या नहीं) और कल्याणकारी मणि देकर एक कौड़ी खरीद लेता है॥१२७९॥
स सूत्राय मणि भिन्ते, नावं लोहाय भस्मने ।
कुथीर्दहति गोशीर्ष, निदानं विदधाति यः ॥१२८० ॥ अर्थ - जो धर्म धारण कर निदान करता है वह दुईद्धि धागे के लिए मणिनिर्मित हार को तोड़ता है, लोहे की कील के लिए वस्तुओं से भरी नाव को तोड़ता है तथा भस्म के लिए गोशीर्ष चन्दन को जलाता है।।१२८०॥
तापार्थ प्लोषते कुष्ठी, स लब्ध्वेक्षु रसायनम् ।
श्रामण्यं नाश्यते तेन, भोगार्थ सिद्धि-साधनम् ।।१२८१॥ अर्थ - जैसे कोई कुष्ठी मनुष्य अपने रोग के लिए रसायन सदृश ईख को प्राप्त कर उसे तपने के लिए जला देता है, वैसे ही भोगों के लिए निदान करके मूर्ख मुनि मुक्ति के साधनभूत श्रामण्य पद को नष्ट कर देता है।।१२८१॥
नरत्वादि-निदानं च, न कांक्षन्ति मुमुक्षवः।
नरत्वादिभवं तस्मात्, संसारस्तन्मयो यतः॥१२८२॥ अर्थ - मोक्ष के अभिलाषी मुनिगण पुरुषत्व एवं वज्रऋषभनाराच संहननादि की प्राप्ति रूप निदान भी नहीं करते क्योंकि पुरुष आदि पर्यायें भी भवरूप हैं और पर्याय के परिवर्तन स्वरूप होने से संसार भवमय हैं। अर्थात् बार-बार पर्यायें ग्रहण करना ही तो संसार है।।१२८२॥
समाधिमरणं बोधिर्दुःख-कर्म-क्षयस्ततः।
प्रार्थनीयो महाप्राज्ञैः, परं नातः कदाचन ।।१२८३॥ अर्थ - अत: महाप्राज्ञ पुरुषों द्वारा समाधिमरण, बोधिलाभ, दुःखक्षय एवं कर्मक्षय की ही प्रार्थना की जानी चाहिए। इनके अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु प्रार्थना करने योग्य नहीं है ॥१२८३ ।।
प्रश्न - साधुजन अपने भक्तिपाठ में और श्रावकजन अपने पूजापाठ में नित्य ही यह बोलते हैं कि