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मरणकण्डिका - ३७०
- “दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झ"। इसमें दुःख कितने प्रकार के हैं और यह पाठ निरन्तर बोलने के पीछे क्या रहस्य है ?
उत्तर - उपर्युक्त पाठ बोलने का मूल रहस्य यह प्रशस्त निदान ही है क्योंकि साधु एवं श्रावक अर्थात् प्रत्येक संसारी प्राणी शारीरिक, मानसिक तथा आगन्तुक इन तीन प्रकार के दु:खों में से किसी-न-किसी दुःखसे पीड़ित अवश्य है। दुखी मनुष्य घबरा कर जब प्रार्थना या याचना करता है कि - हे प्रभो। मेरे दुःखों का नाश हो। उसे उत्तर मिलता है कि हे भव्य ! दुःखों का नाश तो कर्मक्षय हो जाने पर ही होगा।
प्रश्न - प्रभो ! कर्मों का क्षय कैसे होगा ? उत्तर - इन कर्मों का क्षय रत्नत्रय स्वरूप बोधिलाभ हो जाने पर ही होता है। प्रश्न - प्रभो ! बोधिलाभ का उपाय ? उत्तर - बोधिलाभ उत्तम गति में हो सकता है। प्रश्न - प्रभो! उत्तम गति कैसे प्राप्त होगी ? उत्तर - समाधिपूर्वक मरण करने से उत्तम गति की प्राप्ति होती है। प्रश्न - प्रभो ! समाधियुक्त मरण कैसे होगा ?
उत्तर - भगवान् जिनेन्द्र के गुणों की तल्लीनता अर्थात् शरीर-निस्पृहता और कषायकृशता समाधिमरण की प्राप्ति का उपाय है। इसलिए ही इस प्रकार के निदान की आज्ञा है, क्योंकि इस निदान रूप श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। और इन कड़ियों की प्राप्ति के बिना संसारी प्राणी दुखों से कदापि नहीं छूट सकता, अतः प्रत्येक भव्य जीव को इतना निदान अवश्यमेव करना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य कोई निदान नहीं करना चाहिए।
नरत्व-संयम-प्राप्ती, परम भवतः स्वयम्।
निदानमन्तरेणाऽपि, दृगाधाराधनाङ्गिनः॥१२८४ ॥ अर्थ - जो साधु सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओं की आराधना करता है उसे निदान न करने पर भी आगामी जन्मों में पुरुषत्वादि की और संयम की प्राप्नि तो स्वयमेव हो जाती है।।१२८४ ।।
मुमुक्षु का कर्तव्य भव-शरीर-निर्वेद-मानदोष-विचिन्तनम् ।
कर्तव्यं मान-भङ्गाय, संसारान्तं यियासता॥१२८५ ॥ अर्थ - निर्यापकाचार्य शिक्षा देते हैं कि - हे क्षपक ! यदि तुम यथार्थतः संसार का अन्त करना चाहते हो तो मान कषाय का नाश करने के लिये तुम्हें संसार-निर्वेद अर्थात् वैराग्य का, शरीर से वैराग्य का और मान के दोर्षो का चिन्तन निरन्तर करना चाहिए॥१२८५ ॥
प्रश्न - यहाँ मान कषाय का नाश करने की शिक्षा क्यों दी जा रही है ?