________________
मरणकण्डिका - ३७७
है ? अर्थात् वह जीव किस प्रकार सुखी हो सकता है? संसारी प्राणियों का वह सुख तो दुःखों के प्रतिकार स्वरूप ही होता है। अर्थात् दुःखों को कम करना ही उनके सुख का स्वरूप है।।१३०७ ।।
अनपेक्ष्य यथा सौख्यं, न दुःखं वाधते नरम् ।
अनपेक्ष्य तथा दुःखं, न सुखं विद्यते जने ॥१३०८॥ अर्थ - जैसे सुख की अपेक्षा के बिना, मनुष्य को दुःख दुखित नहीं करता है, वैसे ही दुःख की अपेक्षा के बिना मनुष्य को सुख नहीं होता है ।।१३०८॥
प्रश्न - इस श्लोक से आचार्यदेव क्या कहना चाहते हैं ?
उत्तर - आचार्यदेव कह रहे हैं कि दुःख और सुख ये दोनों सापेक्ष धर्म हैं। जब सुख की वांछा जाग्रत हो जाती है तभी दुःख दुखित कर सकते हैं। जैसे भोजन से तृप्त होने की भावना ही भूखे व्यक्ति को व्याकुल कर देती है तभी वह भोजन-पान खोजता है। शीत से ठिठुरने वाला मनुष्य बिस्तर खोजता है। वायु, धूप, वर्षादि से पीड़ित मकान खोजता है, थका हुआ मनुष्य शय्या खोजता है और विरूपता दूर करने के लिए अथवा सुन्दरता वृद्धिंगत करने के लिए सुन्दर-सुन्दर वस्त्रालंकार चाहता है, इत्यादि ।
इसी प्रकार जिस कारण मनुष्य दुःख का अनुभव करता है उन कारणों के दूर होते ही उसे सुख का अनुभव होने लगता है क्योंकि कारणों के होने पर कार्य अवश्य होते हैं।
एक वर्ष तक एक आसन सं तपस्या करने वाले भगवान बाहुबली को आहारजन्य सुख की वांछा नहीं थी अत; भूख-प्यास की वेदना उन्हें दुखित नहीं कर सकी। ऐन्द्रिय सुख की वांछा के बिना दु:ख दुखी नहीं कर सकते और दुःख के बिना कोई भी ऐन्द्रिय सुख मनुष्य को सुखी करने में असमर्थ है अतः सुख की अभिलाषा करने वाला प्राणी प्रथम दुःख की ही अभिलाषा कर रहा है, ऐसा सिद्ध होता है।
सेवमानो यथा वह्नि, न कुष्ठी लभते शमम्।
भुञ्जानो न तथा भोगं, सन्तोषं प्रतिपद्यते॥१३०९॥ अर्थ - जैसे अग्नि को सेवन करने वाला कोई भी कुष्ठी शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे ही भोग भोगता हुआ जीव सन्तोष को प्राप्त नहीं कर सकता ।।१३०९॥
प्रश्न - भोग भोगने वाले को सन्तोष प्राप्त क्यों नहीं हो सकता ?
उत्तर - 'जो जिसकी वृद्धि का कारण है वह उसे कदापि शान्त नहीं कर सकता' यह नियम है। जैसे अमि का सम्पर्क कुष्ठरोग की वेदना को बढ़ाने वाला है अत: उसका सेवन करने वाले कुष्ठी को शान्ति प्राप्त नहीं होती, वैसे ही स्त्री आदि का संगम स्त्री विषयक भोग की अभिलाषा को वृद्धिंगत करता है, अतः जो भोग भोगने में तत्पर है उसका भोगाभिलाषा रूप रोग एक क्षण को भी शान्त नहीं होता। भोगों का त्याग ही भोगों की सन्तुष्टि का उपाय है।
मैथुनं सेवमानोऽङ्गी, सौख्यं दुःखेऽपि मन्यते। शितैः कण्डूयमानो वा, कच्छू कररुहै: कुधीः ॥१३१०॥
-
-
--
-