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मरणकण्डिका - ३७८
अर्थ - जैसे अपने पैने नखों से खाज खुजाता हुआ दुर्बुद्धि मनुष्य उस दाहरूप दुःख को सुख मानता है, वैसे ही मैथुन सेवन करता हुआ पुरुष उस दुःख को ही सुख मानता है ।।१३१०॥
सेवमानो नरो नारी, दुःखदां सुखदां कुधीः ।
मन्यते मथुरा पति, कृभिधापातकीमिव ।।१३११॥ अर्थ - जैसे कोई कीट या लट घोषातकी नामक अति कड़वे फल को खाते हुए उसे स्वादिष्ट मान लेता है, वैसे ही खोटी बुद्धि वाला पुरुष नारी का दुखदायी सेवन करता हुआ भी उसे सुखदायी मानता है ||१३११।।
सम्पद्यते सुखं भोगे, सेव्यमाने न किञ्चन।
सारो नोऽन्विष्यमाणोऽपि, रम्भा-स्तम्भे विलोक्यते ॥१३१२॥ अर्थ - जैसे भली प्रकार अन्वेषण अर्थात् खोज करने पर भी केले के वृक्ष के मूल (स्तम्भ), मध्य एवं अन्त में कहीं भी कुछ सार नहीं मिलता, क्योंकि उसमें सार है ही नहीं। वैसे ही भोगों को सेवन करने में किंचित् भी सुख प्राप्त नहीं होता है।।१३१२।।
भोग ही महाशत्रु है विश्वस्ता यैः प्रतार्यन्ते, विमुच्यते निषेधकाः।
प्रवर्द्धकाः प्रपीड्यन्ते, कस्तै|गैः समो रिपुः ॥१३१३॥ अर्थ - जिन भोगों के द्वारा विश्वस्त जन ठगाये जाते हैं, सेवा करने वाले छोड़ दिये जाते हैं और वृद्धि करने वाले पीड़ित किये जाते हैं, उन भोगों के समान क्या कोई अन्य शत्रु है ? अपितु नहीं है ॥१३१३ ॥
प्रश्न - इस श्लोक का तात्पर्य (अर्थ) क्या है ?
उत्तर - इसका तात्पर्य यह है कि इस लोक में विश्वासपात्र पुरुष विश्वास करने वाले को ठगता नहीं है, सेवा करने वाले को कोई छोडता नहीं है और धन, सम्मान आदि की वृद्धि करने वाले को कोई दुःख नहीं देता, किन्तु ये भोग विचित्र हैं, अत: जो मनुष्य इन भोंगों पर विश्वास करता है उसे ठग कर ये भोग कुगति में ले जाते हैं, इन भोगों की सेवा करने वाले को अर्थात् भोगी पुरुष को एक दिन ये भोग अवश्य छोड़ देते हैं और जो इन भोगों को बढ़ाता है उसे ये भोग संसार-परिभ्रमण कराकर पीड़ित करते हैं, अत: ये भोग ही जीव के महाशत्रु हैं।
निषेव्यमाणो वनिता-कलेवरं, स्वदेह-खेदेन सुखायते जनः।
श्वा व्यश्नुवानो रसमस्थि नीरसं, स्व-तालु-रक्ते मनुते सुखं यथा ॥१३१४ ॥
अर्थ - जैसे कुत्ता सूखी और नीरस हड्डी को चबाता हुआ अपने तालु से निकलते हुए रक्त में रस की कल्पना कर सुख मानता है वैसे ही यह मोही मनुष्य स्त्री के शरीर का सेवन करते समय अपने शरीर के श्रम को ही सुख मारता है॥१३१४ ।।