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मरणकण्डिका - ३७५
उच्चत्वादि-निदानेऽपि, संसारं लभते यदि।
तदा वध-निदानेऽङ्गी, भव-भागीति का कथा? ||१२९७ ।। अर्थ - उच्चकुल एवं पुरुषत्व आदि जो परम्परा से मोक्ष के कारण हैं, जब उनका निदान करना भी संसार-वृद्धि का कारण है तन जो व्यक्ति अपने मन में किसी के वध का निदान करता है उसकी क्या कथा? वह तो संसार-वृद्धि का भागी बनेगा ही।।१२९७ ।। रत्नत्रय में अतिशय लाभ की भावना से आचार्य एवं गणधरादि पदों का निदान भी बुरा है
निदानेऽपि कुलादीनि, जायन्ते नात्र जन्मनि।
संयमं विदधानस्य, मानिनो यातना परा ।।१२९८ ।। अर्थ - उच्चकुल एवं आचार्य पद आदि का निदान करने पर वे उसी भव में तो प्राप्त होते नहीं हैं, क्योंकि वह निदान मान कषाय का द्योतक है। मन्द कषाय एवं उत्कृष्ट संयम पालन से वे गणधरादि पद कथंचित् मिल भी जाँय तो भी अभिमान के कारण उनसे यातना ही प्राप्त होती है, मुक्ति नहीं, अतः आचार्यत्वादि का निदान करना भी व्यर्थ है।।१२९८ ।।
भोगजन्य निदान की निन्दा मथुराः सेवमाना हि, विपाके दुःखदायिनः।
चिन्तनीयाः सदा भोगाः, विपाकफल-संनिभाः॥१२९९ ॥ अर्थ - इन्द्रियों के भोग किंपाक फल सदृश हैं। जैसे किंपाक फल खाते समय स्वादिष्ट लगता है किन्तु उसका परिणाम प्राणघातक होता है, वैसे ही इन्द्रिय भोग भोगते समय मधुर लगते हैं किन्तु उस समय जो पापबन्ध होता है उसका उदय आने पर महादुःख भोगना पड़ता है। ऐसा सदा चिन्तन करते रहने से भोगों के निदान का भाव नहीं होता ।।१२९९ ॥
भोग निदान के दोष भोगार्थमेव चारित्रं, निदाने सति जायते।
कर्म कर्मकरस्येव, द्रविणार्थ-विचारणे ॥१३००॥ अर्थ - जैसे कर्मकर अर्थात् नौकर की क्रियाएँ मात्र धन के लिए हुआ करती हैं, वैसे ही निदान करने वाले मुनियों का चारित्र भोग के लिए ही रह जाता है, उससे कर्मनिर्जरा नहीं होती॥१३०० ।।
भवत्यब्रह्मचर्यार्थ, सनिदानं तपो यतः।
अपसारो विधाता), मेषस्येवास्ति मेषतः ।।१३०१॥ अर्थ - जैसे एक भेड़ दूसरी भेड़ पर अभिघात करने हेतु ही पीछे हटती है, वैसे ही निदान करनेवाले साधु का ब्रह्मचर्य आदि तप का अनुष्ठान अब्रह्मचर्य अर्थात् मैथुन के लिए ही होता है।।१३०१ ।।
विक्रीणाति सपोनर्घ, भोगेन सनिदानकः। माणिक्यमिव काचेन, सारासाराविचारकः ।।१३०२ ।।