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मरणकण्डिका - ३७२
प्रश्न - योनि किसे कहते हैं और वह नीच-उच्च कैसे होती है ?
उत्तर - जिसमें रह कर जीव अपने शरीर को रचता है उसे योनि कहते हैं। योनि कभी नीच या उच्च नहीं होती।
प्रश्न - यदि ऐसा है तो श्लोक में "नीचोच्चासु योनिषु" पद क्यों दिया गया है ?
उला - गहाँ योनि पात से कुल्ल दी गदा किया गया है। अतः इसका अर्थ ऐसा है कि जीव मान्य एवं उच्च कुल में जन्म ले अथवा नीच कुल में उत्पन्न हो किन्त उसके आत्मप्रदेशों का प्रमाण तो असंख्यात ही रहता है। उनमें कभी वृद्धि-हानि नहीं होती।
संसार में भ्रमण करने वाले इस जीव का कोई भी कुल स्थायी नहीं रहा। अपने कर्म के वशवर्ती होकर वही जीव राजा-दास, ब्राह्मण-चाण्डाल, सम्पन्न-दरिद्री एवं दाता और भिखारी हो जाता है। अथवा उत्तम, मध्यम तथा नीच कुलों में जन्म ले-लेकर मरता रहता है, फिर उच्च कुलों में जन्म लेकर गर्व कैसा? और नीच कुल में जन्म लेकर घृणा कैसी ?
गर्व करना हो तो धर्म पर करना चाहिए और घृणा पाप से करनी चाहिए
लाभं लाभमनन्ताश, नीचामुच्चां प्रपद्यते।
तथाप्युच्चा अपि प्राप्ता, अनन्ता योनयो भवे ॥१२८८ ।। अर्थ - यह संसारी प्राणी नीच कुलों के समान उच्च कुलों को भी अनन्तानन्त बार प्राप्त करता है। अनन्तबार नीच गोत्र में जन्म लेता है तब कहीं एक बार उच्चगोत्र में जन्म ले पाता है। इस प्रकार होने पर भी यह जीव अनन्तबार उच्चगोत्र में जन्म ले चुका है। इस प्रकार उदयानुसार नीच-उच्च कुलों का परिवर्तन होता रहता है। इसका क्या अभिमान करना ॥१२८८ ।।
उच्चत्वे बहुशः कोऽत्र, लब्ध्वा त्यक्तेऽस्ति विस्मयः ।
नीचत्वे चास्ति किं दुःखं, लब्ध्वा त्यक्ते सहस्रशः ॥१२८९ ॥ अर्थ - इस प्रकार बहुत-बहुत बार जन्म लेकर छोड़े हुए उच्च कुल में जन्म लेने का आश्चर्य अथवा गर्व कैसा ? और हजारों बार जन्म लेकर छोड़े हुए नीच कुल में जन्म लेने का दुःख कैसा ? अर्थात् यदि प्रथम बार ही उच्चकुल प्राप्त हुआ हो तो गर्व करो और प्रथम बार ही नीच कुल में जन्म लिया हो तो दुख करो।।१२८९।।
उच्चत्वे जायते प्रीतिः, सङ्कल्पवशतोगिनः।
नीचत्वेऽपि महादुःखं, कषायवशवर्तिनः ॥१२९० ।। अर्थ - उच्च गोत्र और नीच गोत्र स्वयं सुख-दुख नहीं देते, अपितु "मेरा कुल उच्च है" मन में ऐसा संकल्प होने से जीव को उच्चकुल में प्रीति होती है और मान कषाय के उदय से नीचगोत्र का जन्म दुःख का कारण होता है|१२९० ।।