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मरणकाण्डका - ३५४
(२०) प्रस्रवण-यदि आहारके समय मूत्र-विसर्जन हो जावे | (२१) अभोज्य गृहप्रवेश-यदि आहारके समय चांडालादि का घरमें प्रवेश हो जावे। (२२) पतन-आहार करते समय मूर्छा आदिसे गिर जाने पर। (२३) उपवेशन-आहार करते समय बैठ जानेपर | (२४) सदंश-कुत्ते-बिल्ली आदिके काट लेने पर | (२५) भूमिस्पर्श-सिद्धभक्तिके अनंतर हाथसे भूमि का स्पर्श हो जाने पर। (२६) निष्ठीवन-आहार करते समय कफ, थूक आदि निकलने पर। (२७) वस्तुग्रहण-आहार करते समय हाथसे कुछ वस्तु उठा लेने पर। (२८) उदर कृमिनिर्गमन-आहार करते समय उदरसे कृमि आदि निकलने पर | (२९) अदत्तग्रहण-नहीं दी हुई किञ्चित् भी वस्तु ग्रहण कर लेने पर। (३०) प्रहार-स्वयं अपने ऊपर या अन्य किसी के ऊपर शत्रु आदि के द्वारा शस्त्र आदि से प्रहार
कर दिये जाने पर। (३१) ग्रामदाह-आहार के समय ग्राम आदि में अग्नि लग जाने पर। (३२) पादेन ग्रहण-पैरों से किञ्चित् भी वस्तु ग्रहण कर लेने पर।
इन बत्तीस कारणों के तथा इसी प्रकार के अन्य भी कारण मिलने पर साधुजन आहार का त्याग कर देते हैं।
आदाननिक्षेपण समिति सहसा दृष्ट-दुर्दृष्टाप्रत्यवेक्षण-मोचिनः ।
भवत्यादाननिक्षेप-समितिव्रत-वर्तिनः ।।१२५४॥ अर्थ - पीछी, कमण्डलु, शास्त्र एवं चौकी आदि वस्तुओं को देख-शोध कर रखना और उठाना आदाननिक्षेपण समिति है।
बिना देखे और बिना मार्जन किये शास्त्रादि का ग्रहण करना या रखना सहसा नामका प्रथम दोष है। नेत्रों से देखे बिना मात्र मार्जन करके वस्तु को रखना-उठाना अनाभोग नाम का द्वितीय दोष है। नेत्रों से देखकर किन्तु मार्जन किये बिना वस्तु को रखना-उठाना दुष्प्रमृष्ट या दुर्दृष्ट नामका तृतीय दोष है और देख भी लिया तथा प्रमार्जन भी कर लिया किन्तु ये दोनों क्रियाएँ उन्मनस्कता पूर्वक करके वस्तु रखी-उठाई गई तो अप्रत्यवेक्षण नामका चतुर्थ दोष होता है। इन चार दोषों का परिहार करते हुए भली प्रकार वस्तु का ग्रहण-मोचन करना ही साधु की आदाननिक्षेपण समिति है।।१२५४ ॥