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मरणकण्डिका - ३५९
प्रतिष्ठापन समिति अनेनैव प्रकारेण, प्रतिष्ठापनका मता।
समितिस्त्यजतस्त्याज्यं प्रदेशे स्थण्डिले यतेः ।।१२५५ ॥ अर्थ - जिस प्रकार आदाननिक्षेपण समिति में देखने-शोधने का विधान है उसी विधान से त्यागने योग्य मल-मूत्र आदि का जन्तुरहित और छिद्ररहित प्रदेश में त्याग करना साधु की प्रतिष्ठापन समिति है।।१२५५ ।।
प्रश्न - प्रतिष्ठापन समिति के निर्दोष पालन हेतु और कौन-कौन से विधान हैं तथा रात्रि में मल-त्याग की क्या विधि है?
उत्तर - साधुजन मल-मूत्र का विसर्जन निर्जन्तुक स्थान में करते हैं। यह स्थान वसतिका से दूर हो, रुकावट रहित हो, हरित तृणादि से रहित हो, गूढ़ हो, विशाल हो, पर्वत के निकट का ठोस प्रदेश हो, ऊसर भूमि हो तथा चट्टान आदि जीवरहित स्थान हो । ऐसे में ही साधुजन अपने शरीर का मलक्षेपण करते हैं। कदाचित् रात्रि में मल-विसर्जन की बाधा हो जावे तो दिन में स्थविर-साधु द्वारा देखे गये स्थान में जाकर वहाँ अपने उल्टे हाध से भूमि .. .र्श कर देखें कि मोई भाग-माजील को नहीं है। इस प्रकार जमीन को देख-शोध कर मलमूत्र का त्याग करना प्रतिष्ठापन या उत्सर्ग समिति कहलाती है।
समितिवान् साधु की विशेषता आभिः समितिभिर्योगी, लोके षड्-जीव-सकुले।
दोषैहिंसादिभिर्नैव लिप्यते विहरनपि॥१२५६ ।। अर्थ - इन पाँच समिति का सदा पालन करने वाला साधु छह-काय के जीव-समूहों से भरे हुए इस लोक में गमनागमन करता हुआ भी हिंसा आदि दोषों से लिप्त नहीं होता ।।१२५६॥
प्रश्न - श्लोक में आये हुए 'आदि' शब्द से यहाँ किसका ग्रहण करना चाहिए ?
उत्तर - प्रमत्तयोग से प्राणघातादि करने का नाम हिंसा है अत: हिंसा आदि से सहित कर्म भी हिंसा ही कहे जाते हैं, क्योंकि कार्य में कारण की प्रवृत्ति अतिप्रसिद्ध है। आदाननिक्षेपण एवं प्रतिष्ठापन आदि समिति में निमित्तभूत गुणों से युक्त साधु प्रवृत्ति करते हुए भी हिंसा आदि पापों से लिप्त नहीं होता। अर्थात् उसको पापबन्ध नहीं होता, कारण कि वह मुनि प्रमादरहित है। श्लोक में आये हुए ‘आदि' शब्द से पृथिवीकायिक आदि पाँच स्थावरकाय और द्वीन्द्रियादि त्रसकाय, इन छह काय के जीवों का परितापन करना अर्थात् उन्हें कष्ट देना, उनका परस्पर में संघट्टन कर देना तथा उनके अंगोपांगों को छिन्न-भिन्न करना इत्यादि दोष भी ग्रहण किये गये हैं।
समितो लिप्यते नाघेर्जीव-मध्ये चरन्नपि ।
स्निग्धं कमलिनीपत्रं, सलिलैरिव षा: स्थितम् ॥१२५७॥ अर्थ - जैसे चिकना कमलिनी पत्र जल में स्थित रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता वैसे ही पाँचों समितियों का प्रतिपालक मुनि जीवों के मध्य आचरण करता हुआ भी कभी पापों से लिप्त नहीं होता ॥१२५७।।