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मरणकण्डिका - ३५६
(२) प्रक्षित दोष - घृत आदि से चिकने पात्र से या हाथ से आहार लेना प्रक्षित दोष है। (३) निक्षिप्त दोष - सचित्त कमल-पत्र आदि पर रखा हुआ आहार लेना निक्षिप्त दोष है। (४) पिहित दोष - सचित्त कमलपत्रादि से ढके हुए अन्न को ग्रहण करना पिहित दोष है।
(५) उज्झित दोष - आम, केला आदि फल का अधिक भाग नीचे गिराकर स्वल्प ग्रहण करना अथवा दाता के द्वारा दिये हुए आहार के बहुभाग को नीचे गिराकर थोड़ा सा ग्रहण करना उज्झित दोष है।
(६) व्यपहार दोष - आहार देने के पात्रादि को अच्छी तरह से देखे बिना आहार देना व्यपहार दोष
(७) दातृ दोष - बिना वस्त्र पहने अथवा एक कपड़ा पहनकर आहार देना नपुंसक, जिसके भूत लगा है, जो अन्धा है, पतित या जाति -बहिष्कृत है, मृतक का दाह-संस्कार करके आया है, तीव्र रोग से आक्रान्त है, जिसके फोडा-फुन्सी है, जो कुलिंगी है, नीचे स्थान में खड़ा है या साधु से ऊँचे आसन पर खड़ा है, जो स्त्री पाँच महीनों से अधिक गर्भवाली है, वेश्या है, दासी हैं, लम्बा बूंघट निकाले हुए है, अपवित्र है, मुख में कुछ खा रही है - इस प्रकार के दाता का आहार देना दातृ दोष है।
(८) मिश्र दोष - सचित्तादि से अथवा षट्काय के जीवों से मिश्रित आहार लेना मिश्र दोष है।
(९) अपक्क दोष - जिस पानी आदि के रूप, रस, गन्धादि का अग्नि आदि के द्वारा परिवर्तन नहीं हुआ हो उसे आहार में देना अपक्ष दोष है।
(१०) लिप्त दोष - आटे आदि से लिप्त चम्मच आदि से अथवा सचित्त जल आदि से लिप्त पात्र या हस्तादि से दिये हुए आहार को लेना लिप्त दोष है।
४ अंगार दोष (१) संयोजन दोष - स्वाद के लिए शीत वस्तु में उष्ण वस्तु अथवा उष्ण वस्तु में शीत वस्तु मिलाकर आहार करना संयोजन दोष है। इस प्रकार के आहार से अनेक रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं एवं असंयम की वृद्धि भी होती है।
(२) प्रमाणातिरेक दोष - मुनियों के लिए आहार-विधि इस प्रकार बतायी गयी है-कुक्षि के अर्धभाग को अन्न से भरे, एक भाग पेय पदार्थ से पूरित करे तथा एक भाग वायु के संचार के लिए खाली रखे। आहार के प्रति अत्यधिक लालसा होने के कारण जब इस विधि का उल्लंघन किया जाता है तो प्रमाणातिरेक दोष लगता है। प्रमाणातिरेक आहार से ध्यान भंग होता है, अध्ययन का विनाश तथा निद्रा एवं आलस्य की उत्पत्ति होती है।
(३) अंगार दोष - इष्ट अन्न-पानादि की प्राप्ति हो जाने पर राग के वशीभूत होकर अधिक सेवन करना अंगार दोष है।
(४) धूम दोष - अनिष्ट अन्न-पानादि की प्राप्ति होने पर द्वेष करते हुए आहार करना घूम दोष है।