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मरणकण्डिका - ३४९
हो चुका हो तथा धूप की ताप से तप चुका हो, ऐसे मार्ग से दिन में नेत्रों की ज्योति ठीक रहते गमनागमन करने वाले साधु की यह मार्गशुद्धि कही जाती है।
उद्योतशुद्धि - दिन में सूर्य के प्रकाश में गमनागमन करना ही उद्योतशुद्धि है, कारण कि सूर्य-प्रकाश में स्पष्ट फैलाव एवं व्यापकता होती है। चन्द्रमा एवं नक्षत्र का प्रकाश अस्पष्ट होता है और दीपक का प्रकाश व्यापक नहीं होता अत: इनसे उद्योतशुद्धि नहीं रहती।
उपयोगशुद्धि - अन्यमनस्कता, चित्त की अस्थिरता एवं वार्तालापादि से रहित, पैर उठाने एवं रखने के क्षेत्र में जीवों की रक्षा में ही चित्त सावधान रहना, उपयोगशुद्धि है।
आलम्बनशुद्धि - तीर्थवन्दना, चैत्यवन्दना, यतिवन्दना, गुरुवन्दना, अपूर्व शास्त्र पठन अथवा शास्त्र के अपूर्व अर्थग्रहण हेतु गमन करना, या मुनियों के योग्यक्षेत्र की खोज करना, वैयावृत्य हेतु विहार करना, अनियत आवास के उद्देश्य से गमन करना, स्वास्थ्य लाभ हेतु विहार करना, श्रम पर विजय प्राप्त करने हेतु विहार करना, शिष्य समुदाय को प्रतिबोध कराने हेतु विहार करना अथवा नाना देशों की भाषा सीखने के उद्देश्य से विहार करना आलम्बन शुद्धि है।
प्रश्न - श्लोक में आये हुए 'सूत्रानुसार गमन' का क्या भाव है ?
उत्तर - सूत्रानुसार गमन का अर्थ है ईर्यासमिति पूर्वक ही गमनागमन करना। यथा - आगे चार हाथ भूमि देखते हुए चलना, भय एवं आश्चर्य का त्याग कर चलना, दोनों भुजा लटका कर चलना, हरे तृण, अंकुर एवं वक्षादि से एक हाथ दूर रह कर विहार करना, विरुद्धयोनि वाले जीवों के उत्पत्ति-स्थानों में प्रवेश करते समय अपने शरीर से त्रस जीवों को कोई बाधा न हो इसलिए बार-बार पिच्छिका से शरीर की प्रतिलेखना करते हुए गमन करना, दुष्ट गाय, बैल, कुत्ता एवं घोड़े आदि पशुओं से चतुराई पूर्वक बचाव करते हुए गमन करना, धान्य
का भसा. शालि धान्य के छिलके, कज्जल, भस्म, गीला गोबर, पानी, पत्थर, तुण का ढेर एवं फलकादि ' का परिहार करते हुए गमन करना, चोर, डाकू, लडाकू एवं शराबी आदि से दूर रह कर गमन करना, अपने पैरों से किसी वस्तु का एवं किसी प्राणी का टकराव एवं प्रवेश न हो ऐसे गमन करना, पशु, पक्षी, मृग एवं बालकों आदि को भयभीत करते हुए गमन न करना, अपने शरीर को इतर लोगों का या इतर लोगों का अपने शरीर को धक्का न लगे, इस प्रकार गमन करना, अति वेग से एवं अति मन्दरूप से गमन नहीं करना, बहुत दूर-दूर पाद-निक्षेप करते हुए गमन नहीं करना, अधिक ऊँचे तक पैर उठा कर गमन नहीं करना, लीला पूर्वक या क्रीड़ा करते हुए गमन नहीं करना, दौड़ते हुए या किसी ऊंची डोली आदि को लाँघते हुए गमन नहीं करना और विकार पूर्वक, चपलता पूर्वक एवं ऊपर और तिर्यगवलोकन करते हुए गमन नहीं करना ।
भाषा समिति का लक्षण व्यलीकादि-विनिर्मुक्तं, सत्यासत्यमृषाद्वयम्।
वदतः सूत्र-मार्गेण, भाषासमितिरिष्यते ।।१२५०॥ अर्थ - अलीक, परुष एवं कर्कशादि वचनों से रहित सत्य और असत्यमृषा ऐसे दो प्रकार के वचन आगमानुसार बोलना भाषा समिति कही जाती है ।।१२५० ।।
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