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मरणकण्डिका - २२६
अर्थ - आहारत्याग के बाद कृशकाय क्षपक को तेल एवं त्रिफला आदि से अनेक बार कुल्ले कराने चाहिए और कान में तेल डालते रहना चाहिए। इससे मुख, जीभ और कर्ण आदि साफ रहते हैं तथा बोलने और सुनने की शक्ति बनी रहती है॥७१८ ।।
उपजाति छन्द भवन्ति येषां गुणिन: सहाया, विघ्नं विना ते ददते समाधिम् । समाधिदानोद्यत-मानसैस्ते, ग्राध्याः प्रयत्नेन ततो गणेन्द्राः ॥७१९॥
इति निर्यापकाः॥ अर्थ - जिनके गुणवान मुनि सहायक होते हैं, ६ सहायक क्षपक को जिना विघ्न-बाधा के समाधि देते हैं अर्थात् उत्तम रीति से उनकी समाधि करा देते हैं, अतः समाधिदान में उद्यत मन वाले मुनियों द्वारा प्रयत्न पूर्वक निर्यापकाचार्य ग्रहण करना चाहिए ||७१९ ॥
इति निर्यापक अधिकार समाप ॥२७॥
२८. प्रकाशनाधिकार निर्यापकाचार्य द्वारा आहार प्रकाशन आवश्यक है अप्रकाश्य विधाहारं, त्याज्यते क्षपको यदि।
तदोत्सुक: स कुत्रापि, विशिष्टे जायतेऽशने ॥७२०॥ अर्थ - अन्न, स्वाद्य एवं लेय इन तीन प्रकार के आहारों को दिखाये बिना यदि क्षपक से इनका त्याग कराया जाता है तो उस समाधिस्थ क्षपक की किसी विशिष्ट आहार में उत्सुकता अर्थात् इच्छा बनी रह सकती है।।७२०॥
ततः कृत्या मनोज्ञानामाहाराणां प्रकाशना ।
सर्वथा कारयिष्याति, विविधाहार-मोचनम् ॥७२१॥ अर्थ - अतः उत्तम-उत्तम मनोज्ञ भोजन अलग-अलग पात्रों में रखकर निर्यापकाचार्य द्वारा क्षपक को दिखाने चाहिए। पश्चात् सर्वथा अर्थात् यावज्जीवन के लिए तीनों प्रकार के आहार का त्याग कराना चाहिए ।।७२१ ।।
कश्चिद-दृष्ट्वा तदेतेन, तीरं प्राप्तस्य किं मम।
इति वैराग्यमापनः, संवेगमवगाहते ॥७२२॥ अर्थ - ऐसे उत्कृष्ट आहार को देखकर विचार करता है कि अहो ! "आयु का किनारा जिसका आ चुका है ऐसे मुझे अब इस मनोज्ञ आहार से क्या प्रयोजन है ? मुझे इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए"। इस प्रकार वैराग्य भावना वाला वह क्षपक संसारभीरता को प्राप्त हो जाता है ।।७२२ ॥