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मरणकण्डिका - २४९
अर्थ - जैसे जंगली हाथी भयप्रद कठोर सांकल द्वारा शीघ्र ही बांधा जाता है, वैसे ही मन रूपी हाथी ज्ञान रूपी सांकल से बाँधा जाता है अर्थात् अशुभ विचार करने वाले मन को ज्ञान द्वारा नियन्त्रित किया जाता है ।।७९६ ॥
मध्यस्थो न कपिः शक्यः, क्षणमायासितुं यथा। मनस्तथा भवेन्नैव, मध्यस्थं विषयैर्विना ।।७९७॥ सदा रमयितव्योऽसौ,जिन-वाक्य-वने ततः।
रागद्वेषादिकं दोषं, करिष्यति ततो न सः ॥७९८ ॥ अर्थ - जैसे बन्दर एक क्षण भी निर्विकार अर्थात् शान्त होकर नहीं बैठ सकता, वैसे ही यह मन एक क्षण भी विषयों के बिना नहीं रहता। अत: चतुर पुरुष को चाहिए कि वह इस मनरूपी बन्दर को जिनागम रूपी सुन्दर वन में माता रहे जिससे वह रा--द्वय आदिवाओं को न करे ।।७९७-७९८ ।।
प्रश्न - यहाँ विषय शब्द से क्या ग्रहण किया गया है ?
उत्तर - यहाँ विषय शब्द से रूप, रस, गन्ध एवं शब्द आदि के निमित्त से होने वाले रागादि भावों का ग्रहण किया गया है, क्योंकि ये रागादि, विषयों से ही उत्पन्न होते हैं। इसीलिए श्लोक का यह भाव है कि मन रागद्वेष के बिना कभी मध्यस्थ नहीं रह सकता। अर्थात् ज्ञान भावना के अभाव में रागद्वेष में प्रवृत्ति करना ही मन का व्यापार है। ज्ञान मन को मध्यस्थ रखता है, अतः आत्महितैषी जीवों को अपना मन ज्ञानाभ्यास में सदैव लगाये रखना चाहिए।
ज्ञानाभ्यासस्ततो युक्तः, क्षपकस्य विशेषतः।
विवेध्यं कुर्वतस्तस्य, चन्द्रक-व्यधनं यथा ॥७९९ ॥ अर्थ - जैसे चन्द्रक यन्त्र का वेध करने की इच्छा रखने वाले को सदा बींधने का अभ्यास करना आवश्यक है, वैसे ही क्षपक के लिए सदा विशेषरूप से ज्ञानोपयोग में लगे रहने को कहा गया है।।७९९ ।।
प्रश्न - चन्द्रक वेध किसे कहते हैं और इसके दृष्टान्त द्वारा आचार्य क्या समझाना चाहते हैं ?
उत्तर - राजा आदि के महल की छत पर तीव्र वेग से घूमने वाला एक चक्र लगा रहता है। उस चक्र में एक विशिष्ट चिह्न रहता है, वह भी चक्र के साथ तीव्र गति से घूमता है। उस चन्द्रक के ठीक नीचे जल से भरा हुआ जलकुण्ड होता है, उस जल में ऊपर फिरते हुए चक्र का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। चतुर धनुर्धारी वीर पुरुष जलकुण्ड में चक्र के चिह्न को देखकर और अपने हाथों से बाण चलाकर उस लक्ष्य को बेध देता है। इसमें देखना नीचे और बाण छोड़ना ऊपर ऐसी बाण चलाने की विशिष्ट क्रिया को चन्द्रकवेध कहते हैं। इस कठिनतर कार्य को बाणविद्या के सतत अभ्यास से ही सिद्ध किया जाता है। ऐसे ही चक्रवत् सतत भ्रमण करने वाला यह मन है। इसको एकाग्र करना चन्द्रकवेध से भी कठिन है, क्योंकि चन्द्रकवेध भले जल के माध्यम से हो किन्तु दृश्यमान है जबकि मन तथा मन के विचार अदृश्य हैं, मात्र अनुभवगम्य हैं। निरन्तर विषयों में भ्रमण