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मरणकण्डिका - ३२५
अर्थ - जिसमें दोष रूपी श्वापद आदि जंगली पशु रहते हैं, वंचना अर्थात् मायाचारी से जो गहन हो रहा है, अत्यन्त भयावह है, असत्यरूपी वृक्षों से सघन है तथा अशुचि अंगोपांग रूपी घास-फूस से व्यास है, ऐसे स्त्री रूपी वन में कल्याणेच्छु साधु कभी नहीं भटकता। अर्थात् स्त्रीरूपी बन के मध्य रहता हुआ भी नष्टशील नहीं होता ||२१६६।।
प्रश्न - यहाँ स्त्री को भयानक वन की उपमा क्यों दी गई है ?
उत्तर - जैसे कोई पुरुष भयंकर वन में भटक जाये तो उसे वहाँ जंगली पशुओं द्वारा, सघन वृक्ष एवं नुकीली घास आदि के द्वारा महान् कष्ट होता है। यहाँ मोक्षमार्ग के पथिक मुनिजनों को स्त्री ही एक भयानक वन है। वन में जैसे जंगली पशु रहते हैं, स्त्री में वैसे ही चंचलता, भीरुता, असूया, उन्मत्तता एवं चुगली आदि दोष रूपी पशु भरे पड़े हैं। लता-गुल्मादि के कारण वन का रास्ता गहन होता है, स्त्री मायाचार रूपी गुल्म से गहन है। वन के सघन वृक्षों के सदृश स्त्री में असत्य और वंचना रूप वचन ही सघन वृक्ष हैं। वन की घास के सदृश स्त्री के अपवित्र अवयव हैं। ऐसे भयंकर स्त्रीरूपी वन में मुनिराज कभी दिग्मूढ़ नहीं होते, यही उनकी सबसे बड़ी महानता है।
भूरि-शृङ्गार-कल्लोला, यौवनाम्बुर्वधू-नदी।
न विलासास्पदा हास-फेना वहति संयतम् ।।११६७ ।। अर्थ - स्त्री एक नदी के सदृश है। स्त्री में शृंगार रूपी बहुत तरंगें हैं, यौवन रूप जल है, विलास और विभ्रमरूप वेग है तथा मन्द-मन्द हास्य रूप फेन है। ऐसी स्त्री रूपी नदी संयत-मुनि को बहाकर ले जाने में समर्थ नहीं हो पाती ||११६७ ।।
विलास-सलिलोत्तीर्णा, अस्तीत्रा यौवनापगा।
अग्रस्ताः प्रमदा-ग्राहस्ते धन्या मुनि-पुङ्गवाः ।।११६८।। ___अर्थ - जो मुनिराज विलास रूप जल से भरी हुई, यौवन रूपी तीव्र वेग वाली स्त्री रूपी नदी को पार करते समय उन स्त्री रूपी मगर-मच्छों द्वारा ग्रस्त नहीं हुए वे ही धन्य हैं ।।११६८ ।।
धन्यं स्त्री व्याध-निर्मुक्ता:, कटाक्षेक्षण-सायकाः।
विध्यन्ति विषयारण्ये, वर्तमानं न योगिनम् ।।११६९ ।। अर्थ - विषयों से व्याप्त इस संसाररूपी वन में स्थित जो मुनिजन स्त्रीरूपी शिकारी द्वारा छोड़े गये कटाक्ष दृष्टिवाणों से वेधित नहीं होते, वे मुनि ही धन्य हैं ।।११६९ ॥
न विव्वोक-रदोऽभ्येति, विलास-नखरो मुनिम्।
कटाक्षाक्षोऽङ्गना-व्याघ्रस्तारुण्यारण्य-वर्तिनम् ।।११७० ।। अर्थ - स्त्री व्याघ्र के सदृश है। भृकुटिविकार उसके तीक्ष्ण दाँत हैं, विलास रूपी नख हैं और कटाक्ष रूपी नेत्र हैं ; ऐसा स्त्रीरूपी व्याघ्र, यौवन रूपी वन में विचरण करने वाले जिन महामुनि को नहीं पकड़ पाता, वे मुनि धन्य हैं॥११७० ।।