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मरणकण्डिका - ३३६
हन्यते ताङ्यते बध्यते रुध्यते, मानवो वित्त-युक्तोऽपराधं विना। पक्षिभिः किं न पक्षी गृहीतामिषः खाद्यते लुज्यते दोष-हीनः परैः ॥१२०४।।
अर्थ - जैसे मांस को ग्रहण करने वाला पक्षी निरपराध होते हुए भी मांसलोलुपी अन्य पक्षियों के द्वारा नोचा जाता है एवं खाया जाता है, वैसे ही लोभी धनाढ्य मनुष्य निरपराध होते हुए भी अन्य धनलोलुपी मनुष्यों के द्वारा घाता जाता है, ताड़ित किया जाता है, बाँधा जाता है और रोका जाता है ।।१२०४ ।।
प्रिया-सवित्री-पितृ-देहजादौ, सदापि विश्वासमनादधानः। न त्रायमाण: सकलां त्रि-यामां, प्रयाति निद्रां धन-लुब्ध-बुद्धिः ।।१२०५॥
अर्थ - जिसकी बुद्धि धन में ही आसक्त है वह मनुष्य अपनी प्रिय पत्नी, माता, पिता एवं पुत्र-पुत्री आदि में भी विश्वास नहीं करता। तीन प्रहर प्रमाण समस्त रात्रियों में जाग्रत रहकर स्वयं धन की रक्षा में संलग्न रहता है।।१२०५ ।।
अरण्ये नगरे ग्रामे, गृहे सर्वत्र शङ्कितः।
आधारान्वेषणाकाङ्क्षी, स्व-वशो जायते कदा ।।१२०६ ।। अर्थ - धनासक्त मनुष्य स्वाधीन कब होता है ? वह सदा घन के आधीन रहता है। वन, नगर, ग्राम एवं गृहादि में सदा शंकित रहता है कि कोई मेरा धन न चुरा ले। इसीलिए वह धन की रक्षा के आधारभूत स्थान की खोज में लगा रहता है ||१२०६॥
धीरैराचरितं स्थानं, विविक्तं धन-लालसः।
विहाय भूरि-लोकानां, मध्ये गेहीव तिष्ठति ॥१२०७।। अर्थ - धनासक्त पुरुष, एकान्त में कोई मेरा धन न चुरा ले इस भय से धीर-वीर महापुरुषों द्वारा सेवित एकान्त स्थान को छोड़कर बहुत जन समुदाय के मध्य में गृहस्थवत् रहता है॥१२०७ ।।
शब्दं कञ्चिदसौ श्रुत्वा, सहसोत्थाय धावति ।
सर्वतः प्रेक्षते द्रव्यं, परामृशति मुह्यति ॥१२०८।। ____ अर्थ - धनलुब्ध मानव रात्रि में किंचित् भी शब्द सुनकर एकदम उठता है, सब ओर देखता है, अपने धन को बार-बार टटोलता है और लेकर भागता है। अथवा मूर्छित हो जाता है॥१२०८ ।।
आरोहति नगं वृक्षमुत्पथेन पलायते।
निघ्नस्तनुमतो भीतो, हृदं विशति दुस्तरम् ॥१२०९ ।। अर्थ - धनासक्त मनुष्य कहीं पर्वत पर एवं वृक्ष पर चढ़ जाता है, कुमार्ग अर्थात् ऊबड़-खाबड़ मार्ग से भागता-फिरता है, जीव-जन्तुओं का घात करते हुए कहीं भी घुस जाता है और भयभीत होता हुआ कभी अगाध सरोवर में प्रविष्ट हो जाता है।।१२०९।।
अवशस्य नरस्यार्थो, हठतो बलिभिः परैः । दायादैस्तस्करै पैस्त्रायमाणोऽपि लुट्यते ।।१२१० ।।