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परणकण्डिका - ३४१
अर्थ - शीत-उष्णादि की बाधाओं को निवारण करने वाले वस्त्रादि परिग्रहों का जो साधु नियम से त्याग कर देता है उसके द्वारा सदा शीत, उष्ण, दशमसक आदि सर्व परीषह भली-प्रकार सहन किये जाते हैं॥१२२८॥
प्रश्न - दुख आने पर परिणामों का संक्लेशित न होना ही परीषहजय है। फिर श्लोक में शीत, उष्ण, दंशमसक आदि को परीषहजय कैसे कहा ? शीतोष्णादि पुद्गल के परिणाम हैं या आत्मा के परिणाम हैं ?
उत्तर - शीत, उष्ण, भूख, प्यासादि शब्द तो पौद्गलिक हैं किन्तु इन शब्दों का यहाँ तात्पर्यार्थ है, इनसे होने वाले दुख को सहन करना। यही परीषहजय है और यह परीषहजय ही कर्मों की निर्जरा का उपाय है।
साधुजन कर्मों की निर्जरा के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं। "तपसा निर्जरा च" एवं "पूर्वोपात्त-कर्मनिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः" इन आगम वाक्यों से सिद्ध है कि निर्जरा के मुख्य हेतु तप और परीषहजय हैं। गृह, वस्त्रादि परिग्रह का त्याग कर देने से एवं अनशन, अवमोदर्य आदि करने से शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि की बाधाओं से होने वाले कष्ट स्वतः और सहज ही सहन हो जाते हैं अत: परीषहजय से होने वाली कर्मनिर्जरा में परिग्रह त्याग को महत्त्व दिया गया है।
शरीर के ममत्व का त्याग शीत-वातातपादीनि, कष्टानि सहते यतः।
क्रियतेऽनादरो देहे, निःसङ्गेन तत: परम् ॥१२२९॥ अर्थ - यतः परिग्रह त्यागी साधु शीत, वायु, आतप, डाँसमच्छर आदि के अनेक कष्ट सहता है, उससे उसके शरीर में भी अनादरभाव प्रगट होता है। अर्थात् कष्ट सहन के अभ्यास से शरीर में ममत्व नहीं रहता ।।१२२९॥
प्रश्न - शरीर में अनादर भाव रखने का क्या अर्थ है?
उत्तर - समस्त हिंसा आदि से जो असंयम होता है उसका मूल कारण शरीर का ममत्वभाव ही है। अर्थात् जिस साधु का शरीर में आदरभाव है वह असंयम से नहीं बच सकता, क्योंकि शरीरजन्य ममत्व की पूर्ति के लिए उसे किसी-न-किसी रूप में परिग्रह ग्रहण करना ही होगा, किन्तु जब शरीर से ममत्वभाव दूर हो जाता है तब हिंसादि सर्व पापों का त्याग हो ही जाता है अतः शरीर में अनादर भाव होने का आशय है सर्व परिग्रहों में अनादर भाव होना।
व्याक्षेपोस्ति यतस्तस्य, न ग्रन्थान्वेषणादिषु ।
ध्यानाध्ययनयोर्विघ्नो, निःसङ्गस्य ततोऽस्ति नो॥१२३०॥ __अर्थ - मुनि के धन आदि परिग्रहों का अन्वेषण आदि करने रूप क्रियाओं में व्याकुलता नहीं रहती अतः उस नि:संग मुनि के ध्यान और अध्ययन में कोई विघ्न बाधा उत्पन्न नहीं होती ॥१२३०॥
प्रश्न - श्लोक में आये हुए “आदि" शब्द से अन्य क्या-क्या ग्रहण किया जा सकता है ?
उत्तर - परिग्रह के अन्वेषणादि के निमित्त से जो-जो अध्यवसान बनते हैं वे सभी "आदि" शब्द से ग्रहण किये जा सकते हैं। यथा - इष्ट परिग्रह की खोज में अनिर्वचनीय कष्ट होता है, कदाचित् इष्ट वस्तु मिल