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मरणकण्डिका - ३४४
अर्थ - हे क्षपक ! इस लोक में आराधना, समाधि एवं रत्नत्रय की विराधना करने वाले जितने भी परिग्रह हैं उन सबको छोड़ो, पश्चात् नि:स्पृह होकर शरीर को छोड़ो ॥१२३७ ।।
इत्थं कृत-क्रियो मुञ्च, विषयं सार्वकालिकम् ।
तृष्णामाशां त्रिधा सङ्ग, ममत्वं त्यज सर्वदा ।।१२३८ ।। अर्थ - इस प्रकार आराधना सम्बन्धी समस्त क्रियाओं को अर्थात् आहार, शरीर आदि के त्यागरूप जो कर्तव्य हैं उन्हें जिसने कर लिया है ऐसे तुम हे क्षपक ! तीनों काल सम्बन्धी परिग्रहों में एवं उनके विषयों में मन, वचन और कायसे तृष्णा, आशा, संग एवं ममत्व को सर्वथा छोड़ दो ॥१२३८ ॥
प्रश्न - तृष्णा, आशा, संग, ममत्व एवं मूर्छा किसे कहते हैं ?
उत्तर - ये 'इष्ट धनादि पदार्थ मुझ से कभी और किंचित् भी अलग नहीं होने चाहिए' इस प्रकार की अभिलाषा को तृष्णा कहते हैं। ये भनाज्ञ पदार्थ मुझे चिरकाल तक प्राप्त होते रहें, ऐसे परिणामों को आशा कहते हैं। परिग्रह में अत्यधिक आसक्ति रूप परिणामों का नाम संग है। 'ये पदार्थ मेरे योग्य हैं और मैं इनका भोक्ता हूँ' ऐसा संकल्प ममत्व है और पदार्थ के प्रति होने वाली अनुराग युक्त आसक्ति को मूर्छा कहते हैं।
परिग्रहत्याग से इसी भव में अतिशय सुख प्राप्त होता है समस्त-ग्रन्थ-निर्मुक्त:, प्रसन्नो निर्वताशयः ।
यत् प्रीति-सुखमाप्नोति, तत्कुत्तश्चक्रवर्तिनः ॥१२३९ ।। अर्थ - बाह्य और अभ्यन्तर समस्त परिग्रह से जो निर्मुक्त है, परिग्रह की चिन्ता से रहित होने के कारण जो प्रसन्न है एवं आगामी काल सम्बन्धी व्याकुलता न होने से जो निर्वृत्ताशय है, उस साधु को जो परम प्रीति एवं सुख प्राप्त होता है, वह प्रीति और वह सुख चक्रवर्ती को कहाँ है।।१२३९ ।।
चक्रवर्ती का सुख कम क्यों है ? इसका कारण गृद्ध्याकाङ्क्ष-कारणं सेवते यच्चक्री सौख्यं राग-पाकं वितृप्ति । सौख्यस्येदं नास्त-सङ्गस्य तुल्यं, स्वस्थोऽस्वस्थैः सौख्यमाप्नोति कुत्र ॥१२४० ।।
अर्थ - चक्रवर्ती जो विषय-सुख भोगता है वह लम्पटता को उत्पन्न करता है, कांक्षा की वृद्धि का कारण है, रागरूप फल वाला है और अतृप्तिकारक है। चक्रवर्ती के ऐसे सुख की तुलना निष्परिग्रही मुनिराज के आत्मीक सुख के साथ कदापि नहीं हो सकती। जैसे नीरोग पुरुष जो सुख प्राप्त करता है क्या वैसा ही सुख रोगी पुरुष प्राप्त कर सकता है ? नहीं। वैसे ही निर्ग्रन्थ मुनि के आत्मीक, वीतरागरूप तथा सहज शान्त स्वभावी सुख को चक्रवर्ती प्राप्त कर सकता है? नहीं ।।१२४० ॥
दुःखानि नश्यन्ति शर्माणि पुष्यन्ति, कर्माणि त्रुट्यन्ति चित्राणि सङ्गे। अगृहीते यत:संयतस्यापि हेयस्तत: सर्वदासौ पटिष्ठेन पुंसा ॥१२४१ ।।
इति परिग्रहत्यागपंचमं व्रतम् ।।