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मरणकण्डिका - ३४०
अङ्कुशो गत-सङ्गत्वं, विषयेभ-निवारणम् ।
इन्द्रियाणां परा गुप्ति:, पुरीणामिव खातिका ॥१२२५॥ अर्थ - जैसे अंकुश हाथी को रोकने में निमित्त है, वैसे ही परिग्रह का त्याग इन्द्रियों के विषयरूपी हाथी को रोकने में निमित्त है। जैसे पारेघ। (खाई न की रक्षा करती हैं वैसे ही परिग्रह का त्याग ही परम गुप्ति है। अर्थात् परिग्रह का त्याग राग की उत्पत्ति में निमित्तभूत इन्द्रियों से आत्मा की रक्षा करता है ।।१२२५ ॥
विषयेभ्यो दुरन्तेभ्यस्त्रस्यति ग्रन्थ-वर्जितः।
अल्प-मन्त्रौषधो मर्त्यः, सर्पेभ्य इव सर्वदा ।।१२२६ ।। अर्थ - परिग्रह का त्यागी सदा पंचेन्द्रियों के दुरन्त विषयों से उसी प्रकार भयभीत रहता है, जिस प्रकार अल्प औषधि एवं अल्प मंत्र वाला मनुष्य सर्पो से भयभीत रहता है।।१२२६ ॥
प्रश्न - इस दृष्टान्त एवं दार्टान्त का क्या आशय है ?
उत्तर - इसका यह आशय है कि जिस मनुष्य को सर्प का विष दूर करने का ज्ञान नहीं है अथवा जो विष उतारने वाले मन्त्र एवं औषधि का प्रयोग करना नहीं जानता, वह मनुष्य सर्पो से युक्त वन आदि में बहुत सावधानी से रहता है। वैसे ही जो निर्ग्रन्थ साधु क्षायिक सम्यक्त्व, यथाख्यात चारित्र एवं केवल-ज्ञानरूप मन्त्रविद्या एवं औषधि से रहित हैं, अर्थात् जब-तक ये प्राप्त नहीं होते हैं तब-तक राग-द्वेषरूप सौ से भरे विषयरूप वन में उन्हें सावधान होकर रहना चाहिए। कारण कि मन में बाय द्रव्य के प्रति जो अनुराग विद्यमान है वह राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाले मोहनीय कर्म का सहकारी कारण है, और मोहनीय कर्म ही इस जीव का संसार है, अत: बाह्य परिग्रह का त्याग करने पर राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति नहीं होती, रागद्वेष के अभाव में नवीन कर्मबन्ध नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि परिग्रह का त्याग ही मोक्ष का उपाय है।
रागो मनोहरे ग्रन्थे, द्वेषश्चास्त्यमनोहरे।
रागद्वेष परित्यागो, ग्रन्थ-त्यागे प्रजायते ॥१२२७ ॥ अर्थ - मनोहर इष्ट पदार्थ में रागभाव होता है और अमनोज्ञ अनिष्ट पदार्थ में द्वेष भाव होता है, अत: परिग्रह का त्याग कर देने से राग-द्वेष का त्याग स्वत: हो जाता है ।।१२२७॥
प्रश्न - रागद्वेष रूप भाव सत्तास्थित कर्म से होते हैं या परिग्रह से होते हैं ?
उत्तर - कर्मबन्ध का मूल निमित्त रागद्वेषरूप भाव हैं और राग-द्वेष का मूल निमित्त परिग्रह है, कारण कि बाह्य द्रव्य को मन से स्वीकार-अस्वीकार करना अर्थात् इष्ट-अनिष्ट मानना ही रागद्वेष का बीज है अत; परिग्रह का त्याग कर देने पर राग-द्वेष का त्याग हो जाता है। परिग्रह रूप सहकारी कारण के अभाव में केवल सत्तास्थित कर्म मात्र से रागद्वेष उसी प्रकार उत्पन्न नहीं होते जिस प्रकार मिट्टी के होने पर भी दण्ड-चक्र आदि सहकारी कारणों के अभाव में घट की उत्पत्ति नहीं होती।
शीतादयोऽखिलाः सम्यग्, विषयन्ते परीषहाः। शीतादि-वारकं सङ्गं, योगिना त्यजता सदा ॥१२२८ ।।