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परणकण्डिका - ३३३
विपुल-वीचि-विगाढ-नभस्तलं, मकर-पूर्वक-वार्चरसंकुलम् । जलनिधिं द्रविणार्जन-लालसो
विशति विरा-रिस्मा मानसः ।।११।। अर्थ - धनार्जन में आसक्त मन वाला व्यक्ति मगर-मच्छ आदि भयंकर जलचर जीवों से व्याम एवं विशाल लहरों द्वारा आकाश को ही छू रहा है मानों, ऐसे समुद्र में अपने जीवन से ही निस्पृह होता हुआ, प्रवेश कर जाता है।।११९३॥
निधनमृच्छति तत्र यदेकको, भवति कस्य तदा धनमर्जितम् । विविध-विघ्न-विनाशित-विग्रहो,
जनतयाखिलयापि जुगुप्सते ॥११९४ ।। अर्थ - धनार्थी पुरुष एकाकी ही धन कमाता हुआ जब मरण को प्राप्त हो जाता है तब उसका वह अर्जित धन किसका होता है ? नाना प्रकार की विघ्न बाधाओं द्वारा नष्ट कर डाला है अपने ही शरीर को जिसने ऐसा पुरुष तो समस्त जनता द्वारा निन्दनीय ही होता है ।।११९४ ।।
लुनीते धुनीते पुनीते कृणीते, न दत्ते न भुङ्क्ते न शेते न वित्ते ।
सदाचारवृत्तेर्बहिर्भूत-चित्तो, धनार्थी विधेयं विधत्ते निकृष्टम् ।।११९५॥ ____ अर्थ - धनार्थी मनुष्य खेत की फसल काटता है, रुई आदि धुनता है, खलिहान आदि साफ करता है, धान्य बेचता है, अपना धन न तो दान में या पुत्रादि को देता है और न स्वयं खाता है, न सोता है एवं न ज्ञान प्राप्त कर कुछ जान ही पाता है। वह धनार्थी तो सदाचार वृत्ति से बहिर्भून चित्तवाला होकर नि:कृष्ट कार्य ही करता रहता है॥११९५ ।।
गिरि-कन्दर-दुर्गाणि, भीषणानि विगाहते।
अकृत्यमपि वित्तार्थं, कुरुते कर्म मूढ-धीः ॥११९६ ॥ अर्थ - मूढ़ बुद्धि मनुष्य धन के लिए भीषण गिरिकन्दराओं में और दुर्गादि में प्रवेश कर जाता है तथा और अनेक प्रकार अकृत्य कर-कर के धन कमाता है ।।११९६ ।।
जायते धनिनो वश्यः कुलीनोऽपि महानपि।
अपमानं धनाकाङ्क्षी, सहते मानवानपि ॥११९७ ॥ अर्थ - उत्तम कुल में जन्म लेकर भी, स्वयं महान् होते हुए भी तथा स्वाभिमानी होते हुए भी धन की वांछा से धनाढ्य पुरुषों के आधीन होकर अपमान सहता है॥११९७॥
काम्पिल्य-नगरेऽर्थार्थ, परितापं दुरुत्तरम्। प्राप्य पिण्याकगन्धोऽगाल्लल्लकं नरकं कुधीः ॥११९८ ॥