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मरणकण्डिका - ३३१
चोरों ने उन्हें लूट लिया। विशाल धनको प्राप्तकर उन चोरोंकी नियत बिगड़ गयी। सबके मनमें यह भाव आया कि मुझ अकेले के हाथ सब धन आ जाय । रात्रिमें भोजन करने बैठे, उन्हीं से एक ने खानेके लिये लाये गये निंद्य मांसमें विष मिला दिया। सबने उसे खा लिया । यहाँतक कि जिसने विष मिलाया था उसने भी भ्रमवश खा लिया। एक सागरदत्त नामंके वैश्यपुत्रने नहीं खाया था, वह बच गया। उसने धनलोभके दुष्परिणामको साक्षात् देखा था इससे उसको वैराग्य हुआ। सब धन वहीं पड़ा रहा, एक बचा हुआ सागरदत्त मुनिके निकट दीक्षित हो गया। इसप्रकार एक धनलिप्सा सर्व चोरों की मृत्युका कारण बनी, ऐसा जानकर धनकी लालसा का त्याग करना चाहिए।
सलो महाभयं यस्माच्छ्रावकेण कर्थितः।
निहितेऽपहृते द्रव्ये, तनूजेन तपोधनः ॥११८६ ।। अर्थ - परिग्रह महा भयरूप है, क्योंकि भूमि में गाड़े गये धन को उनका स्वयं का पुत्र ही ले गया, किन्तु उस सत्पुरुष श्रावक को भी साधु पर सन्देह हो गया कि मेरा धन ये ही ले गये हैं और उस श्रावक ने कथाओं द्वारा साधु पर अपना सन्देह प्रगट कर उन्हें व्याकुल किया ॥११८६ ।।
धनलोभी जिनदत्तकी कथा * उज्जैन नगरोमें एक जिनदत्त नामक सेठ था। उसके पुत्रका नाम कुबेरदत्त था। एक दिन नगरके श्मशानमें मणिमाली यति मृतक शय्यासे ध्यान कर रहे थे। एक कापालिक विद्यासिद्धि के लिये वहाँ आया और मुनिराजको मृतक समझकर उनके मस्तकका तथा अन्य दो शवोंके मस्तकोंका चूल्हा बनाकर उसने आग जलायी। उस चूल्हे पर हांडी चढ़ाकर चावल पकाने लगा। मुनिराज आत्मध्यानमें लीन हुए। वे आत्मा और शरीरके पृथक्-पृथक्पनेका विचार करने लगे किन्तु उनका मस्तक अकस्मात् हिल गया। उससे हांड़ी गिर पड़ी चूल्हा बुझ गया और कापालिक डरकर भाग गया। प्रातः हुआ। किसीने मुनिको कष्टमय स्थितिमें देखा और जिनदत्त सेठको वह समाचार दिया। सेठ अतिशीघ्र वहाँ पहुँचा। मुनिकी स्थितिको देखकर उसको बहुत दुःख हुआ। तत्काल मुनिराजको अपने गृह चैत्यालयमें ले गया। चतुर वैद्यकी सलाहसे लाक्षामूल तेल द्वारा मुनिराजका जला हुआ मस्तक ठीक हो गया। जिनदत्तने गुरुकी महान् वैयावृत्य की | चातुर्मासका समय अत्यंत निकट था अत: सेठकी प्रार्थनापर मुनिने गृह चैत्यालयमें वर्षा-योग स्थापित किया। किसी दिन अपने व्यसनी पुत्र कुबेरदत्तसे धनकी रक्षा हेतु सेठने मुनिराजके बैठनेके स्थानमें धन गाड़ दिया। इस बातको कुबेरदत्तने छिपकर देखा था, अतः मौका पाकर उसने धनको उक्त स्थानसे निकाल कर अन्यत्र गाड़ दिया। वर्षायोग पूर्ण होनेपर मुनिराज विहार करते हैं, सेठने उनके जाते ही खोदकर धनको देखा तो मिला नहीं। अब उसको भ्रम हुआ कि मुनिने धनको चुराया है। वह मुनिराजके निकट जंगलमें पहुँच जाता है और कथाओंके माध्यमसे धनहरणकी बात कहता है। मुनिराज भी समझ जाते हैं और वे भी कथाओं द्वारा अपनी निर्दोषता कहते हैं। उन कथाओंके, नाम-दूत, ब्राह्मण, व्याघ्र, बैल, हाथी, राजपुत्र, पथिक, राजा, सुनार, वानर, नेवला, वैद्य, तपस्वी, चूतवन, लोक और सर्प। इन कथाओंको सेठपुत्र कुबेरदत्त भी सुन रहा था। मुनिराजके प्रति होनेवाले पिताके दुर्भावको जानका उसको वैराग्य हुआ। उसने पिताको सब सत्य वृत्तांत कह दिया कि मैंने धनको खोदके निकाला है। उसने धनलिप्साकी बड़ी भारी निंदा की। जिनदत्तको भी बड़ा पश्चात्ताप हुआ। दोनों पिता-पुत्रने मुनिराजसे क्षमा मांगी और उन्हींके निकट जिनदीक्षा ग्रहण की।