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मरणकण्डिका - २९६
अर्थ - यह स्त्री सर्पिणी सदृश कुटिला, पैरा के सदृश भयङ्कर, बहुत दोषों को करने वाली होती है और मण्डली के सदृश मलिन यह नारी पुरुष को वश में करने के लिए सैकड़ों चाटुकर्म करती रहती है॥१०२९।।
नारीभ्यः पश्यतो दोषानेतानन्यांश्च सर्वथा।
चित्तमुद्विजते पुंसो, राक्षसीभ्य इव स्फुटम् ।।१०३० ।। अर्थ - जैसे राक्षसी से सदा अतिशय भय लगता है, वैसे ही नारी द्वारा होने वाले उपर्युक्त दोषों को तथा और भी अन्य दोषों को देखकर पुरुष का चित्त उनसे सर्वथा उद्विग्न हो जाता है ।।१०३०॥
योषास्त्यजन्ति विद्वान्सो, दोषान् ज्ञात्वेति दूरतः।
व्याघ्रीरिव कृपा-हीनाः, परामिष परायणाः ।।१०३१ ।। अर्थ - जैसे निर्दय एवं पर के मांस में आसक्त व्याघ्री को चतुर मनुष्य दूर से छोड़ देता है अर्थात् उससे दूर रहता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष स्त्री विषयक इन दोषों को जानकर उनसे दूर रहते हैं अर्थात् स्त्रियों को दूर से ही छोड़ देते हैं ।।१०३१॥
स्त्रियों से भी अधिक दोष पुरुषों में होते हैं अतः ऐसे पुरुष भी त्याज्य हैं
दोषा ये सन्ति नारीणां, नराणां ते विशेषतः।
द्रष्टव्या दुष्ट-शीलानां, प्रकृष्ट-बल-तेजसाम्॥१०३२ ।। अर्थ - स्त्रियों में जो दोष हैं वे दोष नीच एवं दुष्ट स्वभाव वाले पुरुषों में भी होते हैं। प्रत्युत् बल, तेज एवं शक्ति अधिक होने से उनमें स्त्रियों से भी अधिक दोष होते हैं। स्त्रियों को भी पुरुषों के दोष देखकर अपनी रक्षा करनी चाहिए॥१०३२॥
व्याघ्रा इव परित्याज्या, नरा दूरं कुचेतसः ।
रामाभिः शुद्ध-शीलाभी, रक्षन्तीभिर्निजं व्रतम् ॥१०३३|| अर्थ - शुद्ध शीलवती एवं अपने ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करने वाली नारियों द्वारा खोटी बुद्धि वाले पुरुष उसी प्रकार दूर से छोड़ देने चाहिए जिस प्रकार व्याघ्र दूर से छोड़ दिया जाता है॥१०३३ ।।
यथा नरा विमुञ्चन्ते, वनिता ब्रह्मचारिणः ।
त्याज्यास्ताभिर्नरा ब्रह्मचारिणीभिस्तथा सदा ।।१०३४ ।। अर्थ - जैसे अपने शील की रक्षा हेतु ब्रह्मचारी पुरुषों द्वारा स्त्रियाँ त्याज्य हैं, वैसे ही शीलरक्षा हेतु ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाली स्त्रियों द्वारा पुरुष भी सदा त्याज्य होते हैं ॥१०३४ ।।
स्त्री-प्रशंसा न रामा निखिलाः सन्ति, दोषषन्त्यः कदाचन ।
देवता इव दृश्यन्ते, वन्दिता बहवः स्त्रियः ।।१०३५ ॥ __ अर्थ - कभी भी सभी स्त्रियाँ दोषयुक्त नहीं होती। बहुत सी स्त्रियाँ तो देवताओं के सदृश वन्दनीय भी देखी जाती हैं।।१०३५ ।।