________________
मरणकण्डिका - ३१९
अर्थ - मन को हरण करने वाले कोमल वचनों द्वारा, हृदय को सन्तुष्ट करने वाले सम्भाषण द्वारा, मद भरी चाल चलना, कमर पर हाथ रखना, डोलते हुए खड़े होना, शरीर की कान्ति, क्रीड़ा, मजाक, विन्चोक अर्थात् दोनों भौंहों के मध्यभाग को सिकोड़ना, मोहित करना, एवं कटाक्षपूर्ण तिरछी दृष्टि से देखना, इत्यादि। स्त्रियों की इन कुचेष्टाओं से पुरुषों का वैराग्य उसी प्रकार नष्ट कर दिया जाता है, जिस प्रकार धोखे से पैर आदि के नीचे आ जाने वाले क्रोधित सर्प के द्वारा जीवन नष्ट कर दिया जाता है।।११४३-११४४ ।।
योषितां नर्तनं गानं, विकारो विनयो नयः।
द्रावयन्ति मनो नृणां, मदनं पावका इव ।।११४५ ॥ अर्थ - स्त्रियों के विकारयुक्त नृत्य देखना, गीत सुनना, उनकी विनय करना एवं उन्हें कहीं लानाले जाना, इत्यादि क्रियाएँ मनुष्य की मनोगत कामवासना को उसी प्रकार द्रवित कर देती हैं जैसे अग्नि घी को पिघला देती है।।११४५॥
महिला मन्मथावास-विलासोल्लासितानना ।
स्मृतापि हरते चित्तं, वीक्षिता कुरुते न किम् ।।११४६ ।। अर्थ - महिला मन्मथ की आवास है। विलास भाव से उल्लसित मुखवाली महिला जब स्मरण में आ जाने मात्र से मन को हरण कर लेती है, तब वह देख लिए जाने पर क्या नहीं करेगी? ।।११४६ ।।
निर्मर्यादं मनः सङ्गात्, सम्मूढं सुरतोत्सुकम्।
पूर्वापरमनादृत्य, शील-शालं विलयते ॥११४७ ।। अर्थ - स्त्री के सहवास से मोहित हुआ पुरुष का मन मर्यादा को तोड़ कर रतिक्रीड़ा के लिए उत्सुक हो उठता है और पूर्वापर का कुछ भी विचार न करके सुन्दर शीलरूपी परकोटे का उल्लंघन कर डालता है ।।११४७ ।।
प्रश्न - मर्यादा किसे कहते हैं ?
उत्तर - सभ्य अर्थात् नीतिपूर्ण व्यवहार को मर्यादा कहते हैं। यहाँ ब्रह्मचर्य विषय का प्रकरण है अत: एक पुरुष का पर-स्त्री के साथ कैसा सभ्य या शालीनता पूर्ण या नीतियुक्त व्यवहार होना चाहिए, उसका नाम मर्यादा है।
कषायेन्द्रिय-संज्ञाभिर्गारवैर्गुरुकाः सदा।
सर्वे स्वभावत: सङ्गादुद्भवन्त्यचिरेण ते ॥११४८ ॥ अर्थ - स्वभावतः सभी संसारी प्राणी कषाय, इन्द्रियवशता, आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा तथा ऋद्धिगारव, रस गारव एवं सात गारव से युक्त होते हैं, अतः स्त्री आदि का साहाय्य पाकर वे इन्द्रियादि विषय रूप अशुभ परिणाम तत्क्षण प्रबल हो उठते हैं ।।११४८ ।।
मातृ-स्वसृ-सुताः पुंस, एकान्ते श्रयतो मनः। शीघ्रं क्षोभं व्रजत्येव, किं पुन: शेष-योषितः ॥११४९ ।।