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मरणकण्डिका - ३१८
स्त्रीसंसर्ग से उत्पन्न होने वाले दोष मानसः स्वल्प-सत्वस्य, स्त्री-संसर्गे विनश्यति।
जघन-स्तन-वक्त्राणि, पश्यतो बहु धल्यते ।।११३८ ॥ अर्थ - जिस पुरुष में सत्त्व अर्थात् धैर्य अल्प होता है उस पुरुष का मन स्त्रियों के संसर्ग से विकारी हो जाता है। स्त्रियों के स्थूल नितम्ब, पुष्ट स्तन एवं सुन्दर मुखादि को बार-बार ताकते रहने से उनका चित्त अत्यन्त चंचल हो जाता है||११३८॥
निरस्यति ततो लज्जां, संस्तवं कुरुते ततः ।
ततो भवति नि:शङ्कस्तो विश्वासति ध्रुवम् ॥२१३९ ।। अर्थ - हृदय विचलित होते ही उसकी लज्जा समाप्त हो जाती है, वह उनकी स्तुति अर्थात् चाटुकारिता करने लगता है, फिर गुरुजनों का भय समाप्त हो जाता है, तब निशंक होकर वह उस स्त्री पर दृढ़ विश्वास कर बैठता है ।।११३९॥
विश्वासे सति विश्रम्भो, विश्राभः प्रणये सति।
रामासु परमा पुंसः, प्रणये जायते रतिः ।।११४० ।। अर्थ - उस स्त्री के प्रति अपने मन में विश्वास दृढ़ हो जाने पर उस स्त्री का भी विश्वास करने लगता है, इस परस्पर के विश्वास से प्रणय होता है, इस प्रकार उस पुरुष की उस स्त्री में परम रति हो जाती है ।।११४०।
नारीणां दर्शनोद्देश, भाषण-प्रतिभाषणैः ।
आकृष्यते मनो नृणामयस्कान्तैरिवायसम् ।।११४१ ।। ___ अर्थ - आसक्ति बढ़ते ही बार-बार परस्पर में देखना एवं भाषण-प्रतिभाषण करना, इससे पुरुषों का मन उनके प्रति ऐसा आकर्षित हो जाता है, जैसे चुम्बक द्वारा लोहा आकर्षित हो जाता है॥११४१॥
हासोपहास-लीलाभिर्गुप्त-गात्र-प्रकाशनैः ।
विलासैर्विभ्रमैहविर्भावैः सह गमागमैः ॥११४२॥ अर्थ - स्त्रियों के द्वारा मन्द एवं मधुर मुस्कान युक्त हास-उपहास किये जाने से, लीलापूर्वक गमनादि क्रियाओं से, स्तन आदि गुप्त अंग दिखाये जाने से, कटाक्षपूर्ण अवलोकन से, विलासपूर्ण चेष्टा से, अन्य भी विकारपूर्ण हाव-भावों से तथा साथ-साथ देशादि में गमनागमन करने से पुरुष का मन चंचल हो जाता है॥११४२॥
मन्मनैः कोमलैाक्यैर्हद्यैर्विसम्भ-भाषणैः। गति-स्थिति-द्युति-क्रीडा-नर्म विव्योक-मोट्टनैः ।।११४३ ।। वक्रावलोकनैः स्त्रीणां, वैराग्यं हियते नृणाम् । शरीर-स्पर्शिभिः क्रुद्धः, पन्नगरिव जीवितम् ।।११४४ ॥